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________________ 4/श्री दान-प्रदीप जो दान दिया जाता है, वह उपष्टम्भ दान कहलाता है। ये तीनों दान अक्षय मोक्षसुख के अद्वितीय कारण रूप हैं। दयादान, उचितदान और कीर्तिदान भी अगर सुपात्र को दिया जाय, तो इनका भी उन तीनों में ही समावेश हो जाता है। इन तीनों प्रकार के दानों में ज्ञानदान की मुख्यता है, क्योंकि जो मनुष्य ज्ञानदान देकर उसकी आराधना करते हैं,वे उससे पूज्यता को प्राप्त करते हैं और जो उसकी विराधना करते हैं, वे अपूज्यता को प्राप्त होते हैं। इस विषय पर विजयराजा की कथा इस दूसरे प्रकाश में बतायी गयी है। राजगृह नगर के जयन्त राजा ने वय से लघु होने पर भी बुद्धि व पराक्रम में श्रेष्ठ मानकर अपने पुत्र चन्द्रसेन को राज्य प्रदान किया। इससे उनके ज्येष्ठ पुत्र विजय ने स्वयं को अपमानित महसूस किया। उसने पिता के घर का त्याग कर दिया। उड्डियाण देश में कीर्तिधर नामक मुनिश्री के दर्शन करके अत्यधिक आनन्द को प्राप्त किया। पंच-महाव्रत पर सेठ, की पुत्रवधू रोहिणी के द्वारा शालि के दानों की वृद्धि का दृष्टान्त और पंच-महाव्रत पालने का उपदेश सुनकर विजय ने चारित्र ग्रहण कर लिया। फिर विजय मुनि अन्य मुनियों - को ज्ञानदान करने लगे। पर कालान्तर में ज्ञान पढ़ाने में उन्हें नीरसता महसूस होने लगी। ज्ञान पर द्वेष भाव पैदा हुआ। अतिचारों की आलोचना किये बिना ही विजय मुनि मरण को प्राप्त हुए और प्रथम देवलोक में उत्पन्न हुए। आयु पूर्ण होने पर वहां से च्यवकर पद्मखण्ड नगर में धनसेठ के घर पर धनशर्मा नामक पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए। पूर्वभव में ज्ञान पर द्वेष करने से उन कर्मों का उदय इस भव में हुआ। ज्ञान प्राप्त न कर सकने का कारण पिता ने ज्ञानी गुरुदेव से पूछा, तो उन्होंने पूर्वभव की वास्तविकता बतायी। फिर श्रीगुरुदेव ने ज्ञान की आराधना और विराधना पर सुबुद्धि और दुर्बुद्धि की कथा सुनायी। जिससे धनशर्मा को पश्चात्ताप हुआ। उसने ज्ञान की आराधना की। वहां से मरकर प्रथम देवलोक में गया। वहां से च्यवकर साकेतनगर में धनमित्र नामक वणिक हुआ। वहां जातिस्मरण ज्ञान होने पर फिर से ज्ञान की आराधना और दान करने लगा। अन्त में संसार का त्याग करके चारित्र ग्रहण किया। फिर केवलज्ञान प्राप्त करके स्वर्ण-कमल पर बैठकर ज्ञानदान पर देशना प्रदान करने लगे-"ज्ञान की आराधना की इच्छा करनेवाले पुरुषों को ज्ञान लेते व देते समय आठ प्रकार के काल, विनयादि आचारों का प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिए ।....." आदि इन आठ आचारों की आठ कथाओं के साथ विस्तारपूर्वक वर्णन धनशर्मा केवली महाराज करने लगे। ज्ञान-प्राप्ति और ज्ञान-दान के अभिलाषियों को यह वर्णन विशेष रूप से पढ़ना चाहिए। धनमित्र का चरित्र और उसमें आनेवाली ग्यारह कथाएँ व ज्ञानदान के आचारादि का वर्णन, महिमादि पढ़ने पर वाचक ज्ञानदान करने के लिए उत्सुक बनता है और उसके फलस्वरूप प्राणी को मोक्ष प्राप्त करवाता है। यह हकीकत इस प्रकाश में देकर ग्रंथकर्ता इस प्रकाश को
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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