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________________ 107/श्री दान-प्रदीप यह सुनकर योगी ने कहा-“हे राजकुमार! ज्यादा कहने से क्या फायदा! अगर मैं तुम्हारे कार्य को सफल न बना पाऊँ, तो मेरा ज्ञानकरण्डक नाम वृथा ही होगा। पर 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि-शुभकार्य में अनेक विघ्न आते हैं। अतः बिना किसी विलम्ब के तुम तैयार होकर मेरे पास आओ। फिर से उस विषय में अब प्रश्न करने की जरुरत नहीं है।" यह सुनकर "ठीक है"-ऐसा कहकर राजपुत्र घर गया और एकान्त में अपने तीनों मित्रों को बुलाकर कहा-“हे कुशल मित्रों! योगी के वचनों पर क्यों व्यर्थ ही अविश्वास करते हो? समस्त शंकाओं का त्याग करके मेरे सहयोगी बनो। मैं अभी ही पाताल की और जाने को तैयार हुआ हूं।" यह सुनकर अत्यन्त दाक्षिण्यता से युक्त उन तीनों मित्रों ने उसकी इच्छा को स्वीकार किया। अगर मैत्री में एक-दूसरे की इच्छा को स्वीकार न किया जाय, तो ऐसी मैत्री किस काम की? उसके बाद वे चारों मित्र वेश बदलकर गुप्त रीति से अपने-अपने परिवार को बताये बिना ही रात्रि में योगी के साथ चल पड़े। उस समय मार्ग में जाते हुए उन्हें मार्ग में आनेवाली आपत्ति को बतानेवाले अपशकुन मिलने लगे। उनके आयुष्य की स्खलना को सूचित करनेवाला उनका पैर समतल भूमि पर भी स्खलना को प्राप्त हुआ। मानों स्पष्ट रूप से दैव की प्रतिकूलता का निवेदन कर रहा हो, इस प्रकार से उनका बायां नेत्र बार-बार स्फुरित होने लगा। उनके दाहिनी तरफ गधे का शब्द हुआ, जो मानो उनके जाने का निषेध कर रहा हो। उनके प्रयाण का निषेध करती हुई प्रतिकूल वायु सामने से बहने लगी। शुभ दैव ने उनके प्रयाण को रोकने के लिए आड़ी अर्गला की हो, इस प्रकार से उनके सामने से काला सर्प आड़ा उतारा। उस योगी के मन की मलिनता को दर्शाती हुई दिशाएँ चारों तरफ से धूल से व्याप्त होती हुई मलिन बन गयीं। यह देखकर तीनों मित्रों ने राजकुमार से कहा-"ये अपशकुन हमें एक कदम भी आगे जाने की अनुमति प्रदान नहीं कर रहे। अतः अभी हमारा प्रयाण करना किसी भी दशा में उचित जान नहीं पड़ता। शकुनों की अनुमति के बिना किसी भी कार्य का प्रारम्भ शुभ के लिए नहीं होता।" यह सुनकर योगी ने कहा-"तुमलोग क्यों व्याकुल होते हो? तुमलोग स्थूल बुद्धि से युक्त होने के कारण परमार्थ को नहीं जानते हो। पाताल की यात्रा करने में तो ऐसे शकुन ही शुभकारक होते हैं। कार्य को आश्रित करके ही शकुन के फल का विचार करना चाहिए। ऐसा होने पर भी कदाचित् तुम्हारी शंका दूर न होती हो, तो उन शकुनों का दुष्फल मुझे ही प्राप्त होगा। तुमलोग निर्भयतापूर्वक चले आओ।"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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