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________________ दानशासनम् लनमालामाल - ___अर्थ--प्रायश्चित्तमें शुद्धिविधानके लिये गंधोदकको मस्तकसे लेकर कटीपर्यंत गीला हो वैसा सेचन करें | भूत प्रेतादिक ग्रहोंकी पीडासे व युद्धक्षेत्रसे रक्षाके लिये गंधोदकको लेपन करें ॥८७॥ दुष्टैः पीडितमानवोत्र सुमनाश्चाश्रित्य भूपं यथा। दुष्टान्वारयितुं सुखं च सुकृतं लब्धं त्रिधा सेवते ॥ पापैः पीडितमानवोपि सुमनाश्चाश्रित्य देव गुरुं ।। पापं वारयितुं सुखं च सुकृति स्वर्गापवर्गप्रदं ।।८८॥ अर्थ-जिस प्रकार दुष्टोंसे पीडित मनुष्य दुःखसे बचने के लिये, दुष्टोंको निवारण कर सुखकी प्राप्तिके लिये राजाके आश्रयमें जाता है एवं मन वचन कायसे उसकी सेवा करता है उसी प्रकार पापोंसे पीडित मनुष्य पापोंके व तज्जन्य दुःखोंके निवारणके लिये एवं सुखकी प्राप्तिके लिये देव व गुरुकी मन वचन कायसे सेवा करें, देव गुरु सेवा का फल इस लोकमेंही नहीं परलोकमें सुखप्रद है, स्वर्गदिक सुखोंको अनुभव कराकर मोक्षसुखको प्रदान करनेवाला है ॥ ८८ ॥ यो जीवान्स्वगृहस्थितान्न दयते स्याद्योगतोऽनारतं ॥ तस्यांतः सुकृतक्षयस्तमखिला पापीत्युशंति क्षितौ ॥ क्लिष्टश्वासजतापदग्धसुकृतः पुण्याभिवृद्धि क्रियाः। सर्वा निष्फलता प्रांति बलवत्पापाभिवृद्धिः परा ८९ अर्य-जो स्वामी अपने घरमें अपने आश्रयमें रहनेवाले द्विपदचतुप्पद जीवोंपर दया नहीं करता है वह सदा पापबंध करता है, उसके पुण्यका नाश होता है। इतनाही नहीं उसे लोकमें सब पापी ऐसा कहते हैं । दूसरे प्राणियोंको क्लेश पहुंचानेके कारण उनके आहसे उसका पुण्य जलते हैं अत एव पापकी वृद्धि होती है। स्वाश्रित जीवोंपर दया करनाही, श्रेयस्कर है ।। ८९ ।।
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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