SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दानशासनम् वाहनपर चढकर आनंद करते हैं उसी प्रकार कोई जीव धर्मके प्रभावसे स्वर्ग में विमानारूढ होकर सुख भोगते हैं ॥ ५८ ॥ पूर्व मुक्तिगती महाविह [ ? ] निजज्येष्ठरमृतेजीव भोः । त्यक्त्वा तद्गमनं क्षणस्मृतिवशात्सर्वार्थसिद्धिं गतौ ॥ तौ द्वौ पण्ड्रसुतानुजाविव तथा स्वान्याभिलाषी तव । ध्याने स्याद्यदि पुत्रजन्मनि मृतौ पूजोत्सवेऽर्थे महे ॥५९॥ अर्थ-पाण्डवपुत्र नकुल और सहदेव मुक्ति जानके लिये पात्र थे। परंतु जिस समय उन्होने तपश्चर्या की उस समय एक क्षणभरके लिये शत्रुवोंकी बाधा न सहन करनेसे एवं धर्मराजका स्मरण आनेसे मुक्ति टलकर उन्हे सर्वार्थसिद्धी जाना पडा । इसलिये हे भव्य ! तुम तप, ध्यान, जन्म, मरण, द्रव्योणर्जन, युद्धस्थान एवं जिनपूजोत्सव आदि समयमें अपने चित्तको स्थिर रखो। प्रत्येक कार्यमें चित्तैकाग्रताकी अत्यंत आवश्यकता है ॥ ५९॥ कारुण्याभूताचेत्ते दयालोः क्रोधोद्रकं कुर्वते कारयति । एते सर्वे हिंसकास्संत आहु- । स्तन्यापारा एव हिंसाक्रियाः स्युः ॥ ६० ॥ अर्थ-करणासे जिसका चित्त द्रवीभूत होगया है ऐसे दयालु संयमियोंके हृदयमें जो कोई क्रोधोद्रेक करते और कराते हैं। उनको महर्षियोने हिंसक कहा है। क्योंकि उनका यह व्यापार हिंसा ही तो है ॥६॥ साधूनां जनयंति चतसि यदा हास्याभिमानारतिकौघैः कामविकारशोकरतिसत्रास गुप्सादिभिः । हिंसाख्यैः परुषैर्वचोभिरमले क्लेश च ये क्षाभणं । वर्षान्दावृतभानुवच्च किल ते पापांबुदेनावृत्ताः ॥६१॥ अर्थ-जो मनुष्य काम, क्रोध, हात्य, रति, अरति, शोक, भय,
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy