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________________ दानविधिद्रव्यदातृपात्रलक्षण अनादरेणैव सुपात्रदानं । लक्ष्मीः सदा भोगविवर्जिता स्यात् ॥ १८ ॥ अर्ध- जो व्यक्ति आदरसे सुपात्रदान देता है उसकी संपत्ति इच्छितरूपसे भोग के काम में आती है । जो निरादर भावसे पात्रदान देता है उसकी संपत्ति भोगके काममें नही आती है ||१८|| १९ अनादरकृतं सुदानमतुलानि धत्ते सदा । फलान्यविकलानि तैरनुभवो न तस्येष्टदः ।। असाध्यरुजयाथवा बहुमिषात्प्रभस्सेवया | सुखं न लभते लसद्विभवदेवबिंबं यथा ॥ १९ ॥ अर्थ -- यद्यपि अनादरभाव से दिया हुआ सुपात्रदान सभी फलोंको देनेवाला होता है परंतु उसे असाध्य रोग के कारणसे, स्वामिसेवा के कारण से, या और कोई कारण से सुख नहीं मिलता है; जैसे देवप्रतिमा यद्यपि चामर, छत्रादि वैभवसे सजी हुई दीखती है परंतु उस वैभवका अनुभव वह नहीं सकती है वैसे संपत्ति के प्राप्त होनेपर भी सुख नहीं मिलना यह अनादरकृत दानका फल है ॥ १९ ॥ पात्रदान से दोषनाश और गुणलाभ. वातघ्नो मलमूत्रकृच्छ्रकहरो दुष्पित्तनुत्पुष्टिकृत् । मेघाबुद्धिबलांगकांतिकरणः पापच्छिदग्निमदः || ज्ञानावरणापही बहुगुणः शीतः सुसेव्यो बुधैः । गव्याधार इवाप्यदभ्रगुणदो वर्षानुवत्सादरः ॥ २० ॥ अर्थ - जिस प्रकार गायका घी यदि विधिपूर्वक सेवन किया जाय तो वह वातरोगको दूर करता है, मलमूत्रके विकारको नष्ट करता है । थकावटको दूर करता है, पित्तोद्रेकको हटाता है, शरीरको बल देता है, मेधा - बुद्धि और शरीरकी कांतिको बढाता है, प्यासको दूर करता है, अनि तेज करता है, दृष्टिदोष, बुद्धिविकार इत्यादि दोषोंको दूर
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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