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________________ अष्टविधदानलक्षण - - अर्थ-जिस प्रकार धोबी वस्त्रको मसाला, सोडा इत्यादिसे धोकर साफ करते हैं उसी प्रकार गुरुजन राजाके पापको पुण्योंके द्वारा दूर करते हैं॥ ३३ ॥ किं नीचकल्पिताहारमाहरन्युत्तमा यथा। तथा पापार्पितं दव्यं न गृह्णन्ति द्विजोत्तमाः ॥ ३४ ॥ अर्थ-क्या नीचकुलोत्पन्नोंके द्वारा पकाये हुए भोजनको उत्तम मनुष्य ग्रहण करते हैं ? नहीं । इसीप्रकार उत्तमद्विज पापसे कमाये हुए द्रव्यको ग्रहण नहीं करते हैं ॥ ३४ ॥ परस्त्रीजारसंधानकारिणं च यथा नृपः । साधं दापयितारं यद्यापयिष्यति दुर्गति ॥ ३५ ॥ अर्थ-धर्मात्मा राजा जिसप्रकार परस्त्रीलंपटी, अन्यायी, चोर इत्यादिको दण्ड देता है उसी प्रकार पापोपार्जित धनको दान देनेवाला राजा भी नरकादि दुर्गतिको प्राप्त करता है ॥ ३५ ॥ बालोप्यन्यधनादाने पापमित्युदिते सति । मुक्त्वा धावत्यस्पृशन्स वालादालोऽपि वस्तुहृत् ॥ ३६॥ अर्थ--परपदार्थोके ग्रहण करने में तत्पर ऐसे बालकको भी यदि यह . कहदिया जाय कि छे ! यह परपदार्थ है इसको ग्रहण करना पाप है तो वह उसको छोडकर दौडता है । ऐसी अवस्थामें पापाचरणसे द्रव्य कमानेवाला राजा बालकसे भी अधिक मूर्ख है ॥ ३६ ॥ न वांच्छंति न श्रुण्वंति न स्मरंति यथा बुधाः । . वाग्दत्तकन्यां भूपाघदत्तं वित्तं तथा द्विजाः ॥ ३७॥ अर्थ-जिस प्रकार दूसरोंको वाग्दानपूर्वक दी हुई कन्याको उत्तम पुरुष इच्छा नहीं करते हैं और न स्मरण करते हैं उसी प्रकार ब्राह्मण लोग राजाके पापोपार्जित धनके दानकी बांछा न करें ॥ ३७ ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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