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________________ अष्टविधदानलक्षणे दान, तप इत्यादि किए हों, ऐसे जीव पापाभिवृद्धि के लिए प्राप्त पुण्यसे राजा होकर इस भवमें उत्पन्न होते हैं ॥ १९ ॥ राजदेहका सामर्थ्य ये सततलसोधस्य भारमेव वहति ते । सारस्तंभा इवाभांति राजानः पापपुण्यकाः ॥ २० ॥ अर्थ-जिस प्रकार कोई मजबूत खंबे सातमंजिलकी महलका भी भार धारण करनेके लिए समर्थ होते हैं, उसी प्रकार राजदेह भी प्रजावोंके दुष्टशिष्ट व्यवहारोंमें योग देकर पुण्य-पापोंका उपार्जन करते हैं ॥ २०॥ आत्मकृतपुण्यशक्तिः स्वार्जितबहुपापभारवहनाय स्यात् । व्याघ्रस्य सर्वमृगपशुवधपटुता पापभारवहनायैव ॥ २१ ॥ अर्थ-संपूर्ण प्राणियोंको मारने में प्राप्तचातुर्य व्याघ्रके लिए पापोपार्जन का ही कारण है, उसी प्रकार दुष्ट राजावोंके द्वारा उपार्जित पुण्य केवल पापभारको वहन करनेके लिए ही होता है ॥ २१ ॥ ब्राह्मणशरीरका सामर्थ्य । रंभास्तंभा यथा सोधभारमत्र वहंति किं । विमा रंभोपमा राजपापभारं वहति किं ॥ २२ ॥ अर्थ--के छेके वृक्षका खंभा क्या महलके भारको धारण करसकता है ? नहीं । इसी प्रकार क्या राजाके पापके भारको ब्राह्मण धारण कर सकते हैं ? नहीं ।। २२ ॥ षोडशवर्णसुवर्ण सुरत्नसंकीलनोचितं नान्यस्मै । घोडं सुशास्त्रभार दक्षा विभा न पापभारं नैव ॥ २३ ॥ अर्थ-जिसप्रकार सोलहटंचका सोना रत्नोंको धारण करनेके लिये योग्य होता है अर्थात् शुद्ध सोनेमें रत्न जडनेसे विशेष शोभा आती है, अन्य
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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