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________________ भावलक्षणविशनम् हिंसादुर्मतिदूषणे च महतां धर्मापकीर्ती भटौं। ..साले तं पतितेऽप्यति च यथा सा स्थाचयाशक्तिका १३० - अर्थ-जो भव्य अविभक्त है उन सर्व को शुद्धि कही है । परंतु वे अविभक्त नहीं हो तो उन को शुद्धि नहीं है। जिस कन्याका विवाह हो गया है वह भिन्नगोत्रा हो जाने से उसके पितादिक जैसे दोष शुद्धिके लिए योग्य हैं वैप्ती वह नहीं है । हिंसा, दुर्मरण, दूषण लगाना, धर्म की निंदा करना, पर्वतादिकसे गिरकर पडना इत्यादिक पातक हो जाने पर यथाशक्ति शुद्धि प्रहण करके पाप से मुक्त होना चाहिए । विमोचयन् रोगमरं भिषग्यथा विमांचयन् दैन्यमरं नृपो यथा । मृते च बंधावसुखोपशोतये यथातिदुरवं स्वजनेन मोचयन्॥१२१ __ अर्थ-जिस प्रकार वैद्य रोगको छुडाता है, राजा दीनता की छुडाता है, उसी प्रकार किसी बंधुका मरण होनेपर अपने कुटुंबियोंक दुःखकी उपशांति के लिए उन के दुःख को दूर करते हुए शुद्धि विधान करना चाहिए ॥ १२१ ॥ धनका उपयोग नृपोऽर्जितार्थ निजसैन्यपुष्टये यथा प्रजार्थो नृपवप्रकर्मणे । जिनाश्रिता जैनजनाधांतये ददाति सर्वच धनं तथा जनः॥१२२ जिस प्रकार राजाके द्वारा संचित धन अपनी सेनाके पोषणके लिए है। प्रजावोंका धन राजाके संरक्षणके लिए है। उसी प्रकार जिनभक्क जीवोंका धन साधर्मी भाईयोंके पापकी अशांतिके लिए उपयोगमें आना चाहिये । उसी प्रकार के कार्योंमें सज्जन अपने धनको देते हैं ॥१२२॥ शुद्धिविधान अनुकंपैकं क्षपयति गर्दैकं गुरुदयैकमिति दोषस्य । निजगुरुदत्तव्रतधृतिरेकं भागं ततोऽतिनिर्दोषाः स्युः ॥१३॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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