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________________ ६ दामशासनम् अर्थ - संसार में दुःख भीरुवोंकी विशुद्धि किस प्रकार होती है । उन के भेदको मैं जानकर आगमानुसार कथन करूंगा ॥ १०८ ॥ जिनधर्म के अपवादको दूर करें यथागमं यथाकालं यथाशक्ति यथोचितम् । भूपाः प्रजागः शान्त्यर्थ दंडं स्वीकुर्वते यथा ॥ १०९ ॥ जिनधर्मापवादांश्च दृष्ट्वा श्रुत्वाऽघभीरवः ॥ श्रुतेहि कुर्युः संशुद्धिं तारतम्येन सर्वथा ॥ ११० ॥ अर्थ - जिस प्रकार राजा यथागम, यथाकाल, यथाशक्ति, यथा उचित आदि बातोंको विचार कर प्रजावों के पापकी शांति के लिए दंड विधानको स्वीकार करते हैं । उसी प्रकार पापभीरु सज्जन जिनधर्म के अपवादको देखकर अथवा सुनकर तारतम्यसे शास्त्रोक्तविधि से उसका शोधन करें ॥ १०९ ११० ॥ अविभक्तों की शुद्धि. एकेनैव कृते दोषे सर्वेषामविभागिनाम् । शुद्धे सम्बन्धिनां सर्वशुद्धिः स्यादेकशुद्धितः ॥ १११ ॥ अर्थ-कहीं कहीं एक व्यक्ति के दोषसे उनके साथ रहनेवाले अनेक व्यक्तियोंको दोष लगता है । इसलिए उस महापातकी एक है। व्यक्तिकी शुद्धि होनेपर सबका शोधन हो सकता है । यह अविभक्तों के लिए नियम है ॥ १११ ॥ विभक्तों की शुद्धि. विभक्तानां तु सर्वेषामन्तरेक घृताघतः ॥ शुद्धिः स्यात्तस्य नान्येषामूढ कन्येव पैठकात् ॥ ११२ ॥ अर्थ - विभक्तोंके लिए सबका भिन्न २ रूपसे ही शोधन होना चाहिये । अर्थात् जिसने पातक किया है उसीका शोधन हो । दूसरों की आवश्यकता नहीं है ॥ ११२ ॥ 1
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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