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________________ दानशासनम् Arr.. ...... परिग्रह हो तो मनुष्योंका मन बेगयुक्त जलके बीच में रहे हुए तृण के समान बार २ चंचल होता है। और यदि परिग्रहसंग्रह अत्यधिक होगया तो उस से अग्नि की बालासे संतप्त पात्र में स्थित उबलते हुए पानीके समान मन की स्थिति होती है । अतः सत्पात्रमें दान देने से ही मनःशान्ति होती है ऐसा समझकर दान कार्य में मन को लगाना चाहिए ॥ ६७॥ न विघ्नाः सन्ति केषांचित्पापिनां पापमूर्तये ॥ न विघ्नाः सन्ति केषांचित्कृतिनां पुण्यमूर्तये ॥ ६८ ॥ अर्थ-लोकमें विघ्न अंतराय किसे नहीं है ! अपितु अवश्य है, परंतु पुण्यशालियोंको अपने पुण्यमूर्तित्वके प्रभाव से विष्न नहीं होते है व आनेपर भी दूर होते हैं ।। ६८॥ दर्शनचारित्ररहित ज्ञान. निरुप्तक्षेत्रवृत्तिववृत्तिमब्द इवादृशः ॥ ज्ञानं कृषिकवत्तस्य जीवितं निष्फलं भवेत् ॥६९।। दृष्टिवृत्तविहीनस्य परं ज्ञानप्रभाविनः । जीवितं निष्फलं तस्य निरर्थ क्षेत्रवृष्टिवत् ।।७०॥ अर्थ-चारित्र व दर्शनसे रहित ज्ञान व्यर्थ है, जिस प्रकार किसानको, खेतीका ज्ञान होनेपर भी यदि उसने बीज नहीं बोया तो वह निष्फल है। बोया तो भी वृष्टि आदिकी अनुकूलता नहीं मिली तो उसका ज्ञान निष्फल है। उसी प्रकार दर्शन व चारित्रसे रहित विशिष्टज्ञानको धारण करनेवाले प्रभावी व्यक्तिका भी जीवन निष्फल है । अतः ज्ञानार्जनके साथ श्रद्धा. नमें दृढता व चारित्रके पालन के लिए भी प्रयत्न करना चाहिये ॥७०॥ ___ गुरुवोंकी अनुमतिके घिना चारित्रपालननिषेध. ग्रामजनपत्यनुज्ञा विना नराः कुर्वतेऽत्र यत्कार्यम्। . हानिः स्यात्तेन यथा गुर्वनुमतिमन्तरेण यवृत्तम् ॥७१॥ .
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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