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________________ भावलक्षणविधानम् ...... पुण्यकर पाप. केचिदाखेटितुं गत्वा शून्य हस्ता भवन्त्य हो । तेषां पुण्यकरं पापं ब्रुवन्तीह मुनीश्वराः ॥ ५८॥ अर्थ-कोई कोई शिकार खेलने के लिए जाते हैं, शिकार कुछ भी न मिलनेपर शून्य हस्तसे लौटते हैं । परंतु मनमें खिन्न नहीं होते हैं । प्रत्युत इर्षित होते हैं कि आज शिकार नहीं मिला तो अच्छा हुआ, मेरे हाथसे होनेवाली हिंसासे में बच गया, उन प्राणियोंकी भी रक्षा हुई । यद्यपि उनकी क्रिया पाप है तथापि परिणामसे पुण्यकर है। जारत्वादिकृतिस्मृत्योर्बाधा बहुविधा भवेत् । तेषां पुण्यकरं पापं कर्मरूपविदो विदुः ॥ ५९॥ अर्थ-जारत्वादिदुष्कृतियों को करके जो व्यक्ति उन कृतियों से होनेवाली बाधावोंको विचार कर पश्चात्ताप करते हैं । एवं उन पापोंको छोडते हैं तो उनका पाप पुण्यकर है, ऐसा कर्मस्वरूपको जानने वाले महर्षि कहते हैं ॥ ५९॥ पापकर पुण्य, विना राजादिवाधां यज्जारस्यावति जारताम् । तस्य पापकर पुण्यं कर्मरूपविदो विदुः ॥ ६ ॥ . अर्थ-जो व्यक्ति राजादिकी बाधासे दूसरे जारव्यक्ति की जारता को संरक्षण करता है अर्थात् उस जारपुरुषको कोई कष्ट नहीं होने देता है, वह पापकर पुण्य है, इस प्रकार महर्षिगण कहते हैं ॥ ६ ॥ क्रुद्धोऽपवादाचकितोऽपि यो जनो दंष्ट्रा विदार्याशयमस्रमाशु । तथा पिपासु वि वर्तते यथाप्यलर्क आबद्धगलो दिदंक्षुकः ॥ __ अर्थ-जो मनुष्य निंदासे भययुक्त होता है तथा क्रुद्ध होता है, तब वह अपनी दाढ़ें खटखटांता है, अपना मुख फाडता है । उस ४१
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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