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________________ दानशासनम् दुवृत्ताः शमनोक्तयः कुमतयो निंद्यक्रियाः सक्रुधः । प्रज्ञास्संति न संति वात्र कुदृशस्तान्मारयति ध्रुवम् ॥६१॥ अर्थ-संसारमें कोई मूर्ख होते हैं, कोई अज्ञानी, कोई दरिद्री, कोई असाध्य रोगसे पीडित, कोई दुःखी, कोई भाग्यवान, कोई सुखी, कोई प्रमादी, कोई कामी, कोई अहंकारी, कोई दुराचारी, कोई शांत बोलनेवाले, कोई दुर्बुद्धि, कोई निंद्यक्रिया करनेवाले और कोई क्रोधी होते हैं । परंतु सन्मार्गका उपदेश देनेवाले विद्व न् होते हैं या नहीं यह नहीं कह सकते हैं, अर्थात् प्रशस्तमोक्षमार्गके उपदेश देनेवाले विद्वान् बहुत कम होते हैं । यदि कोई हों तो मिथ्यादृष्टि अविवेकी उनको अनेक प्रकारसे कष्ट देते हैं ॥ ६१ ॥ जिनागमकी रक्षा करो. दायादचोरकुसुतस्त्रीजळकृमिधूलितैलदहनाचैः । स्याजिनशास्त्रविनाशस्तेभ्यस्तद्रक्ष सर्वयत्नेन ॥६२॥ अर्थ-दायाद, चोर, कुपुत्र, दुराचारिणी स्त्री, जल, कीडे, धूल, तेल, अग्नि आदिसे जिनागमका नाश होता है। इसलिए हे भव्यात्मन् ! इनसे जिनागमोंकी रक्षा कर, जिससे इस लोकमें सम्यग्ज्ञानका साधन बना रहे ॥ ६२ ॥ मतं समस्तै ऋषिभिर्यदाईतैः प्रभासुरं पावनदानशासनम् । मुदे सतां पुण्यधनं समर्जितुं धनानि दद्यान्मुनये विचार्य तत् ॥ ६३ ॥ अर्थ-समस्त आहेत ऋषियोंके शासन के अनुसार यह दानशासन प्रतिपादित है । इसलिए पुण्यधनको कमाने की इच्छा रखनेवाले दानी श्रावक उत्तम पात्रोंको देखकर उनके संयमोपयोगी धनादिकद्रव्योंको विचार कर दान देवें ॥ ६३ ॥ इति शास्त्रदानविधानम्
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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