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________________ दानशासनम् अभिमान, दानादिक गुण, बंधुत्व आदि नष्ट होते हैं । प्रेम नहीं रहता है, चारित्र व सम्यक्त्वका नाश होता है, उत्तमगति भी उसे नहीं हो सकती है । एवं उसके व्यवहारसे नरकादि नीचगतिका बंध होता है । परिग्रह व रोगकी वृद्धि होती है, दीनता बढ़ती है, सज्जनोंके हृदयमें विषाद बढता है, कदाचित् मृत्यु ही इसकी होती है। बंधन ( काराग्रह ) वैर, ताडन आदियोंसे एक दो या तीन दुःख प्राप्त होते हैं । इसलिए विवेकीको उचित है कि यह दूसरोंकी निंदा न करें और गाली न देवें ॥ ४४ ॥ मूर्खाका शाप कुछ नहीं करसकता है. मूर्खाणां शपनं शांतं मौनिनं न च बाधते । शपंत बाधते सत्यं रावणोक्षिप्तचक्रवत् ॥ ४५ ॥ अर्थ-मूर्ख मनुष्य यदि किसी शांत व मौनीको गाली देवें तो वह गाली उस मौनीको कुछ भी हानि नहीं पहुंचा सकती है, उल्टा उस गाली देनेवालेकी ही उसस हानि होती है । जिस प्रकार रावणके द्वारा छोडा हुआ चक्र उसीके मरणके लिए कारण हुआ, उसी प्रकार वह गाली उसी व्यक्तिके लिए बाधक है ॥ ४५ ॥ गाली देनेवालोंके लिये प्रायश्चित्त नहीं है. प्रायश्चित्तं न शपतां शप्तानां नाघहानितः । -शोधनं सर्वथा देयं श्रोतृणां योगभेदतः ॥ १६ ॥ अर्थ-गाली देनेवालोंके लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं है, क्यों कि गाली देनेवालोंके पापकी निवृत्ति नहीं होती है । तथापि उनके आत्माको शोधन करनेके लिए गाली सुननेवालोंके योगके भेदको लक्ष्यमें रखकर प्रयत्न करना चाहिये ॥ ४६ ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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