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दानशासनम्
शास्त्र पढनेवालोंको इतर काममें लगानेका फल । शास्त्राणि पठतां नित्यं प्रयोक्तारोऽन्यमुखमम् । मूढाः स्युरिह तेऽमुत्र दृग्ज्ञानावृतयोऽधनाः ॥ ३३ ॥ अर्थ-जो सज्जन प्रतिनित्य शास्त्र पढनेवालोंको गुरुसेवा शाखस्वाध्यायसे बाह्य अन्य उद्यममें लगाते हैं वे इसी भवमें हिताहित विवेकरहित मूर्ख होते हैं। एवं परभवमें दर्शनावरण ज्ञानावरण से युक्त होते हैं एवं दरिद्रो होकर उत्पन्न होते हैं ॥ ३३ ॥ *
. प्रसिद्धगुरुका नाम लेना। अमसिद्धेन गुरुणा बुधो भूत्वा महात्मना ।
बुधोऽभवं ब्रुवन्नेवं ज्ञानरत्नं विलुपति ॥ ३४ ॥ अर्थ-अप्रसिद्ध सामान्य गुरुसे विद्वान् होकर किसी लोकप्रसिद्ध बडे महात्मा गुरुसे विद्वान् हुआ हूं ऐसा कहनेवाला अपने ज्ञानरत्नको नष्ट करलेता है । ३४ ॥
शानसाधनापहरणफल पुस्तकालेखासिक्तं तु मंजूषादीन्हरंति ये ।
भवेद्ज्ञानावृतिस्तेषां पुस्तकानि क्षयंत्यरम् ॥ ३५ ॥ अर्थ-जो सज्जन दूसरोंकी पुस्तक, लेख, वेष्टन, डोरा, पेटी आदि ज्ञानोपकरणको अपहण कर लेते हैं, उनको ज्ञानावरण व दर्शनावण कर्मका बंध होता है । एवं उनकी पुस्तकादिक ज्ञानसामग्री शीघ्र ही नष्ट होती है ॥ ३५॥
ज्ञानसाधनदहनफल यदैव जिनशास्त्राणि दग्धान्यपि परैः स्वयम् । स्यात्तथैव च तत्कर्म ज्ञानदृक्पुण्यनाशनम् ॥ ३६ ॥ शास्त्रापाठश्रुतिं येषां मोचयित्वान्यमुद्यमम् ॥ प्रयोक्तारस्तच्चिदकं दोषराहुर्गिरत्यरम् ।।
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