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________________ २९२ दानशासनम् अर्थ-लोकमें देखा जाता है कि कम संपत्ति व अधिकसंपत्तिको धारण करनेवाले राजावोंको सबको राजाके नामसे उल्लेख कर उनका आदर, विनय किया जाता है, इसी प्रकार अल्पज्ञानी व महाज्ञानी साधुवोंको भेद न कर साधुवोंके नामसे उनका विनय, आदर व भक्ति करें तो वे सज्जन बुद्धिमान्, विद्वान् होते हैं एवं सातिशय पुण्य व निर्मलज्ञानको प्राप्त करते हैं ।। २७ ॥ व्यसहायसे विद्वान तैयार करानेका फल सतीव दीप प्रज्वाल्य सर्वनेत्रांधता हरेत् । जातो येन बुधस्तेनभव्यचित्तांधता हृता ॥ २८ ॥ अर्थ-जिस प्रकार किसी सतीने एक दीपक लगाया उससे अनेक लोगोंके नेत्रकी अंधता दूर होकर वे पदार्थोको देखते हैं, उसी प्रकार कोई सज्जन अपने द्रव्यादिकको दान देकर किसी एक को विद्वान बनाता है तो उससे भव्योंके हृदयका अज्ञानांधकार दूर होता है। उसका श्रेय उस व्यक्ति को भी मिलता है जिसने उसे विद्वान् बनाने के लिए सहायता दी है । इसलिए शास्त्रदानकी महिमा अपार है ॥ २८॥ दान देते समय सज्जन प्रमाण नहीं करते क्षेत्राय योध्ने विदुषे तरुण्य भृत्याय सेवाकृसिलंपटाय । सुताक्षराभ्यासकराय वित्त-दानप्रमाण विबुधा न कुर्युः॥२९॥ अर्थ-बुद्धिमान व पुरुषार्थी सज्जन खेतके लिए, योद्धाके लिए, विद्वानोंके लिए, अपनी स्त्रीके लिए, सेवाकार्यमें तत्पर सेवकके लिए, अपने पुत्रको विद्याभ्यास करानेवालेके लिए, द्रव्यदान करते समय कोई प्रमाणका विचार नहीं करते हैं । दिल खोलकर देते हैं ॥ २९ ॥ जघन्यमध्यमोत्कृष्टविवादान्वीक्ष्य शौल्किकाः । धनान्याददते तद्वद्धनिको दानमाचरेत् ॥ ३० ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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