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________________ शास्त्रदानविचार २८७ AKAirror विद्वदभ्यो ददते नित्यं लिखितालिखितानि ते। पुस्तकान्युचितानि स्युः शास्त्रवाराशिपारगाः ॥१२॥ अर्थ-जो सज्जन लिखित व अलिखित शास्त्रोंको ज्ञानोपार्जन करनेके लिए विद्वानोंको प्रदान करते हैं वे शास्त्ररूपी समुद्र के पारगामी होते हैं ॥ १२ ॥ लिखितं पुस्तकमलिखितमंबरनाराचकंटगुणमंजूषाः । ये ददते ते पुरुषा जिनशास्त्रपयोधिपारगा एव स्युः ॥१३॥ अर्थ-जो सज्जन साधुसंतोंके लिए ज्ञानार्जनके साधनभूत लिखित शास्त्र, अलिखित शास्त्र, वस्त्रवेष्टन, लोहकंटक आदि दान में देते हैं वे शास्त्ररूपी समुद्रके पारगामी होते हैं ॥ १३ ॥ भक्ती राज्ञि वृथा भवेद्बहुविधा यच्छंति सेवा यथा । सप्तांगं सफलं तथा जिनपतौ धर्मप्रभावोत्सुके ॥ धर्मे धर्मबलद्वये गुरुवरे साधौ सदा धार्मिके । शास्ने शानिणि पुस्तकेषु पठति व्याख्यातरि श्रोतरि॥१४॥ पापं नाशयितुं मुखं च सुकृतं लब्धं सुबोधांबुधेः । पारं गंतुमिमा रुजां जडमति इंतुं स भव्यो जनः ॥ वर्णाभ्यासकरे तुजां जनपतौ नार्थव्ययस्यावधि । कुर्यात्क्षेत्रविधाविमास्तदुचिताः पूतक्रिया भक्तितः॥१५॥ अर्थ- जिसप्रकार राजाके प्रति की हुई सेवारहित भक्ति व्यर्थ होती है, यदि वही भक्ति सेवासहित की गई तो उससे अनेक प्रकारके फल मिलते हैं । इसीप्रकार जिनेंद्रभगवंत, धर्मप्रभावनातत्पर साधर्मी भाई, धर्म, धर्माश्रित स्वपर बंधुगण, गुरुजन, साधुगण, धार्मिकजन, शास्त्र, शास्त्री, पुस्तक, पढनेवाले, व्याख्यान करनेवाले, और श्रोता आदिकी सेवा भव्यजन पापके नाशकेलिए, पुण्यकी वृद्धिकेलिए, सुखकी
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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