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________________ २८२ दानशासनम् वेदनाको दूर करता है, इसी प्रकार काललब्धिके आनेपर ही वह रोग दूर होता है ॥ १५॥ दुष्टजन भूपे सेवकसकुलेऽत्र धनिके ग्रामप्रजाप्रेषके । चाकृष्टे धनहर्तरीह सशमास्तिष्टीत मौनान्विताः ॥ निर्षीजं विवदंति चोभयभवस्वात्मार्थपुण्यार्थिभि- । स्त्वाकोशंत्यतिदूषयंति कुदृशस्तान्पापवित्तार्थिनः॥ १६ ॥ अर्थ-इस कलिकालमें काष्ठांगारके समान मिथ्यात्वसे दूषित व्यक्ति पापसे द्रव्यार्जन करनेकी इच्छासे दुष्ट राजाने, सेवकोने, धनिकोने, गांवके प्रजासंरक्षकोने या चोरोने कोई धनका अपहरण किया या कोई गालियां दी तो कुछ भी प्रत्युत्तर न देकर शांति धारण कर मौनसे बैठे रहते हैं। परंतु उभयभवके हितको साधन कर देनेवाले अपने धर्मात्मा बंधुवों के साथ अकारण ही विवाद करते हैं । उनको गाली देते हैं । उनका दूषण करते हैं ॥ १६ ॥ श्रुत्वा ज्ञात्वा पुराणं प्रतिदिनमपि नः श्रेणिकादिप्रपंचं। . - यात्यात्मैकां गतिं वानृतमिदमखिलं काललब्धिप्रधान ।। धर्मः सर्वो वृथा स्यादिति विदितजना जैनवंधूनबीजं । घ्नंत्याक्रोशंति निंदति हि सकळधनं दंडयंत्याहरंति ॥१७॥ अर्थ-पापक्रिया करनेकी इच्छा रखनेवाले पापी गत्रिंदिन विचार किया करते हैं, प्रतिदिन पुराण व शास्त्रको सुनकर व जानकर भी श्रेणिकादि अपने कर्मके अनुसार किसी गतिमें गये अर्थात् नरकमें गये । इसलिए यह सब झूठा है । काललब्धि एक मात्र प्रधान है। धर्म वगैरह सर्व व्यर्थ है, ऐसा अपने अज्ञानसे समझकर व्यर्थ ही अकारण अपने हितैषी बंधुवों को कोसते हैं, मारते हैं, उनकी निंदा
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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