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________________ २५४ दानशासनम् 200000000000000000000ccccmmenance AAAAAAAAAAAAAAA 24.com मूढाः कंवलदेहसौख्यमतयो विश्वस्य वैश्यासुख । दत्तात्मीयमुखोचितार्थमुखिता न्यक्कृत्य तांस्तान्परैः ॥ सार्थर्गाढरतिक्रियैस्सुखधनाः क्रीडति दृष्ट्वापि ताः। संक्रिश्यंत इवोचितव्ययमजानंतोऽत्र ताम्यंत्यहो ॥२०१॥ अर्थ-हे जीव ! इस लोकमें शरीरसुखको ही सुख माननेवाला बहिरात्मा वेश्यासुखपर विश्वास रखकर उनको अनेक प्रकारसे धना. दिक देते हैं। परंतु वह वेश्या उनपर प्रेम करती है क्या ? नहीं। वह तो अधिक धन देनेवाले कोई दूसरे मिले तो पहिले पुरुषको तिरस्कार कर उससे प्रेम कर क्रीडा करने लगती है। वेश्याकी संगति पैसेवालोंके साथ होती है। तब वे मूर्खजम उसे देखकर दुःखित होते हैं । अपने द्रव्यको उचित स्थानमें व्यय करनेके लिए यदि मनुष्यने नहीं जाना तो ऐसा ही होता है ॥ २०१ ॥ निजतनुसुखकरभर्तुः कुलांगना अन सकलसेवाभक्त्या। कुर्वत इव दातारो देहाक्षसुखोपकर्द लोकस्यालम् ॥२०२॥ अर्थ-अपने लिए शरीरसुखको देनवाले पतिकी सेवा-भक्ति एक कुलस्त्री जिस प्रकार करती है उसी प्रकार शरीर व इंद्रियमुखमें उपकार करनेवालोंकी सेवा दाता करें ॥ २०२ ॥ नाजीर्ण चटुलानलस्य सततं नागो कसत्तेजसः । पापं नाव्रतिकस्य जीव सुदृशो दुष्टोद्यम माकुरु ॥ नैनो नागसमईदुक्तचरितं हेतु समर्थ तथा। नास्यागः किमिमं निहन्मि च कथं राज्ञा यथा चिंत्यते ॥२०३!! अर्थ--लोकमें देखा जाता है कि जिसकी उदरानि तेज है उसे अजीर्ण कभी नहीं होता है । जिसका विवेक शौर्य आदि तेज है उससे अपराध कभी नहीं होता है। अवती होनेपर भी सम्यग्दृष्टि
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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