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________________ दानफलविचार २४७ RAVNA~~ ~~~~ ~~VVVVNA अर्थ-कोई वाचक आकर किसी दातासे यह कहें कि मुझे दीजिये, दीजिये, मैं छोड नहीं सकता। उस हालत में उसको दान देनेवाला दाता ठीक उसी प्रकारका है जैसा कोई अपने बालक के रोगशमनके लिए बलि देता हो ॥ १७८ ।। __व्याघ्ररूपदाता चण्डोऽपवादभीतो यो वाचि क्रुध्यति चेतसि ! बाधां न कुरुते भाति पंजरस्थतरक्षुवत् ॥ १७९ ।। ‘अर्थ--जो दाता याचकोंके प्रति मन व वचनमें अत्यंत क्रुद होता है, परंतु अपबादके भयसे कोई बाधा नहीं पहुंचाता वह पंजरमें बद्ध व्याघ्रके समान है ॥ १७१ ॥ तरण्डमापूरितसर्वलोकं । नदीतटं तारयिताऽमनस्कः ॥ तदंतरस्थानपि सर्वलोकान् । शपन्कुप्यभिव दातृलोकः ॥१८०॥ ___ अर्थ-जहाजमें भरे हुए लोगोंको दयासे समुद्र या नदीके किनारे पर न पहुंचाकर उनके प्रति क्रोधित होते हुए अनेक प्रकारसे गाली देनेवाला जो नाविक रहता है, उसके समान कोई दाता रहते हैं । आये हुए पात्रोंको दयाभावसे उचित दान देकर भेजने के वजाय उनके प्रति क्रोधित होकर उनके साथ गालीगलौजका व्यवहार करते हैं यह . बडे दुःखकी बात है ॥ १८० ॥ .. व्याजेनान्यार्थमाहत्य पुण्याय ददते नृणाम् । तैलकर्पूरमिश्रायाः केचिन्निणेजका इव ॥ १८१ ।। अर्थ-जो लोग दूसरोंके धनको किसी बहानेसे अपहरण कर धर्मकार्यके लिए देते हैं, उनका पुण्य तेल कपूर के मिश्रके समान है उनकी वृत्ति धोबीके समान है ॥ १८१ ।।
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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