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________________ दानफलविचार २४५ केचित्तद्वचनं वदंतममलं निर्भर्सयंत्यद्भुतम् । उक्त्वा दैन्यवचोऽपि तेन कतिचित्कस्यालये ब्रूहि भो ॥१७३॥ अर्थ-कोई धनिक सज्जन पात्रोंको देखकर उनके साथ मीठी २ बातें बनाकर चलते बनते हैं। कोई उन पात्रोंको देखकर कर्ज दिये हुए साहुकारके आने के समान भयभीत होकर घरमें बैठ जाते हैं। कोई निर्मल वचनको बोलनेवाले पात्रकी निर्भर्सना करते हैं। कोई दानी पात्रागमनकी सूचना देनेवाले सज्जनसे दीनताके साथ बोलते हुए पात्रको किसी घरमें लेजानेके लिए कहते हैं ॥ १७३ ॥ एकोऽहमस्यां पुरि किंच नान्ये द्वाराग्रगेई द्रुतमेषि दृष्ट्वा । कुप्यंतमेतं विबुधा वदंति मन्येऽधदोऽयं समयोऽहमन्ये ॥ १७४ ॥ अर्थ-कोई दानी अपने घरके दरवाजे पर खडे होकर पात्रोंके आगमनको देखता है। यदि पात्र दूसरोंके घरको छोडकर अपने घरकी ओर आवे तो उस पात्रकी सूचना देनेवालेके प्रति वह क्रोधित होकर कहता है कि " क्या इस नगरमें मैं अकेला हूं, दूसरे कोई नहीं हैं । क्यों दूसरेके घरको छोडकर मेरे धरकी ओर ही आते हो"। इस प्रकार उसके प्रति क्रोधित होनेवाले दाताके लिए वह पापार्जन का समय है ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं । हम भी कहते हैं ॥ १७४ ॥ केचित्सत्पुरुषा द्विषंति कुपितान् कुप्पंत्ति शप्यंत्यलं । केचिदुःपुरुषान्नमति ददते शंसंति वित्तं स्वयम् ॥ पुण्याः पुण्यकरा भवंति दुरघाः पापातुरा विश्रुता । जीवतोऽप्यगदं पिति विषमिच्छतो मृति ये यथा॥१७५॥ अर्थ- कोई सत्पुरुषों के प्रति द्वेष करते हैं, उनके प्रति क्रुद्ध होते
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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