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________________ २४० निशासनम् साऽस्य स्यान्मृतिरद्य तस्य सुकृतं निर्मूलयंती वधूः । ज्येष्ठा दुर्गतिदायिनी गुणहरी सद्धर्मविध्वंसिनी ॥ १५९ ॥ अर्थ - इसी प्रकार और एक प्रकारकी स्त्री पात्रके आगमनको सुनकर आंखे लाल करलेती है, क्रोधसे मुखको फुला लेती है, शिर पीट लेती है, जबर्दस्ती बच्चे व बरतन वगैरेको इधर उधर फेंकने लगती है, चलते समय नाचनेके समान पैरके शब्द जोर-जोर से करती हुई चलती है, इतना ही क्यों अनंतानुबंधी क्रोध के उदयसे उन मुनिराजों को खूब गालियां देती है । वह स्त्री सचमुच में स्त्री नहीं, पतिकें लिए मृत्यु के समान है, वह आज पतिके संपूर्ण पुण्यको नष्ट करती है, ज्येष्ठा है, दुर्गति प्रदान करनेवाली है, समस्त गुणोंको नाश करनेवाली है एवं सद्धर्मको बिध्वंस करनेवाली है ।। १५९ ॥ न क्षीरं दधि नो न तक्रममलो ना तंडुलो नो घृतं । नो शाकं द्विद्वलं न तैललवणं नो नोषणं धनम् ॥ भांडं नाभिनवं गृहं न शुचि न स्नाताहमन्या न मे । सामयं च विना करोमि गुरवे पाकप्रयत्नं कथम् ॥ १६०॥ अर्थ – कोई कोई स्त्रियां आहार दान देनेकी इच्छा न हो तो बहानाबाजी करती हैं । घरमें दूध नहीं, दही नहीं, छाछ नहीं, अच्छे चात्रल नहीं, घी नहीं, शाकभाजी नहीं, दाल वगैरे नहीं, तेल नहीं, नमक नहीं, मिर्च नहीं, लकडी नहीं, नवीन बरतन नहीं, घर भी साफ सुथरा नहीं, मैंने भी स्नान नहीं किया, मुझे मदत करनेवाली दूसरी कोई नहीं, इसके अलावा मुझे योग्य सामग्री भी नहीं है । ऐसी अवस्था में मैं पात्रों को आहारदान किस प्रकार करूं । इत्यादि प्रकार से कहती है ॥ १६० ॥ बहानाबाजीका प्रकार मद्भर्ता च सुतः पुरे न नपरो न द्रव्यमेकं गृहे । वित्तं मे नः करे पुरेऽत्र ऋणदो नैकोत्र यात्रागते ।
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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