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________________ २३८ दानशासनम् ऋणनीति तीव्र गदेऽधमर्णस्य पत्रं भित्वा ददत्तुजा । गृह्णीयाल्लिखितं साधु सर्वनाशो विपर्ययात् ॥ १५४ ॥ अर्थ-जिसने कर्ज लिया है वह मनुष्य तीत्र व असाव्य रोगसे पीडित हो तो उसके ऋणपत्रको फाडकर उसके पुत्रसे दूसरा पत्र लिखा लेना चाहिये । ऐसा न करें तो सर्व नाश होता है ॥ १५४ ॥ ऋणदोष श्रुत्वोत्तमर्णवचनं मनुजस्तरक्षोः श्रुण्वन्ध्वनि मृग इवाविरतं स्खलद्वाक् । मूर्छन्ससन्निपतनोत्थितलक्षणः स्या द्विान्विमुक्तपरवस्तुरिहापि पूज्यः ॥ १५५ ॥ अर्थ-जिसने किसीसे कर्ज लिया हो तो कर्ज देनेवालेके वचन को सुनकर वह भयभीत होता है, जिस प्रकार कि व्याघ्रकी ध्वनिको सुनकर हरिण भयभीत होता है, उसी प्रकार वह भी भयभीत होता है । उसके सामने बोलते समय स्खलित वाणीसे बोलता है। मूछित होता है, विशेष क्या ? सन्निपात ज्वरीके लक्षण ही प्रकट होते हैं । ऐसी अवस्थामें दूसरोंसे कर्जा लेनेका जो त्याग करता है वही सचमुचमें विद्वान् है और पूज्य है ॥ १५५ ॥ मायाचारदोष. यत्रास्ति वंचना तस्य न रत्नायार्थलाभता । विश्वसंति न सर्वे तं, पापवृद्धिः परा भवेत् ॥ १५६ ॥ अर्थ--जिसके हृदयमें मायाचार या वंचकत्वभाव मौजूद है उसे कभी रत्नत्रय, पुण्य व अर्थलाभ नहीं होसकता है। उसे दुनिया कोई भी विश्वास नहीं करते । और उसके पापकी वृद्धि होती जाती है ॥ १५६ ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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