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________________ दानफलविचार २३५ दान मौमसे देवें के कुप्यंति शपंति वैरमनिशं कुर्वति चास्यालयम् । प्लोषामः प्रभुणापि मंदिरमिदं निर्णाशयामःश्रियम् ॥ केनोपायशतेन के वयमिमं मार्गे कषासस्ततो ॥ नोक्त्वा मा वद मा मनोगतधनं मौनेन देयं सदा ॥१४७॥ अर्थ-दुनियामें दान देन के वचनको देकर फिर उस वचनका भंग करना यह महान् कठिन कार्य है। उस व्यक्तिका कोई विश्वास नहीं करते हैं। कोई उसके प्रति क्रोधित होते हैं, कोई गाली देते हैं, कोई सदा उसके साथ वैर बांधते हैं, कोई उसके घर को जलानेकी बात कहते हैं, कोई स्वामीके द्वारा उसके घरको नष्ट करानेकी बात कहते हैं। इतना ही क्यों ? हजारों उपायोंसे उस व्यक्तिको कष्ट देनेके लिए प्रयत्न करते हैं। इसलिए दान देनेके धन को एकदम अविचारित होकर नहीं बोलना चाहिये । बोलने के बाद नकार नहीं करना चाहिये । बुद्धिमान् दाताको उचित है कि वह जो कुछ भी दान देना चाहें मौनसे ही देवें ॥ १४७ ।। दानरहितसंपत्तिकी निरर्थकता पुण्यपुत्ररहितस्य जीवितं, ज्ञानदृष्टिरहितस्य संयमाः। दानमानरहितस्य संपदोऽरण्यपुष्पमिव निष्फलाः स्युराः॥ अर्थ-पुण्यवान्, धर्मात्मापुत्रसे रहित मनुष्यजीवन, ज्ञानदृष्टि अर्थात् विवेकसे रहित संयम और दान व सन्मानसे रहित संपत्ति, ये सब अरण्यपुष्पके समान व्यर्थ हैं । हा! मनुष्य विवेकसे काम नहीं लेता है, और अपनी संपत्तिका योग्य स्थानमें उपयोग नहीं करता है ! आश्चर्य है ! ॥ १४८ ॥ * बतित्वमप्रमादित्वं सदयस्वं सुतृप्तता । अनक्षेच्छानुवर्तित्वं संतः प्राहुस्सुसंयमं ॥ . .
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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