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________________ २.१८ दानशासनम्. करणत्रयलक्षण मनो राजवदाभाति यद्वचःसत्कलावत् । x - कायः सेवकवत्मास्त्रितयं दावलक्षणम् ॥ १०८ ॥ . अर्थ-----दाताका मन राजाके समान उदार रहना चाहिये। वचनमें सच्छील सतीके समान मितभाषण रहना चाहिए । और कायमें सेवक के समान विनयवृत्ति होनी चाहिये । यही प्रशस्त दाताका लक्षण है ॥१०८ . राजलक्षण या दातृहृदय अस्मरन्नवदजातु नस्ति शब्दममूचयन् ।। ददामि भाति वाग्वक्ता सदा राजेव दातृहत् ॥ १०९ ॥ अर्थ-राजाका धर्म है कि वह कोई याचक आवे तो नास्ति शब्दका स्मरण कभी हृदयमें भी न करें, वचनसे न बोले, कायसे नास्तिकी सूचना न देवें । परंतु जन्मभर " ददामि " देता हूं, इसी प्रकारकी वृत्ति रक्खें । प्रशस्त-दाताका भी हृदय वैसा ही होना चाहिये ॥१०९॥ दातृवचन स्वामी ददेति किं किंतु तद्विदन्ननुशन् ददत् । साध्वीजन इवाभाति सर्वदा दातृभाषणम् ॥ ११० ॥ अर्थ-जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री यदि परोसने के लिए बैठी तो उसके लिए अमुक पदार्थ चाहिये ऐसा कहकर मांगने की आवश्यकता नहीं है। किंतु वही सब कुछ समझकर पतिको जो चीज चाहिये परोसती है, इसी प्रकार दातावोंका वचन अत्यंत संयत होना चाहिये ॥ ११० ॥ दातृकाय : या या नियुक्ता सत्सेवा तां तां कुर्वन्मुदा सदा । . भासते दासकायोऽयं सेवको भक्तिमानिह ॥ १११ ॥ , x भाण्डागारिकवद्वचः ' ऐसा भी पाठ है । कोषाधिकारीके समान जिसका वचन है । अर्थात् कोषाधिकारी जैसे पाचकको अल्पधन देता है वैसे उत्तम दाता मितभाषी रहता है ।
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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