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________________ दानफलविचार २१५ २१५ धर्मामासस्कार धर्ममभावनायै ये वाकायाथै स्सहायिनः । ... तेषां प्रियोक्तिभिश्चित्तं तर्पयेदुचितैर्धनैः ॥ १० ॥ अर्थ--धर्मप्रभावना करनेके लिए जो मन वचन कायसे व धनसे सहायता करने हैं उनका प्रियवचन व उचित द्रव्योंसे सत्कार करना चाहिये ।। १०० ॥ येन केन च मयेन धर्मकार्य प्रवर्द्धते । कर्तव्या सत्कृतिस्तस्य चित्तक्षाभं न कारयेत् ॥१०१ अर्थ-जो व्यक्ति धर्मकार्यकी वृद्धि करता है, उसका सत्कार करना चाहिये उसके चित्तको क्षुब्ध नहीं करना चाहिये ॥१०१॥ दानफल दत्तं दानमयाचिते सविभवं पात्रे ददात्यद्भुतं । दैवायाचितदत्तमल्पविभवं संप्रार्थनाजायते ॥ नीत्वा तत्समयं मनः कलुपयनल्पेऽपि दत्ते सतां । निस्वं क्लेशकरं शपतमनृतं भूपं भजत्यत्र ते ॥ १०२ ॥ अर्थ-अयाचित पात्रमें दान देनेपर उसके फलसे चक्रवर्ति देवेंद्रादिकके विभव प्राप्त होते हैं। याचितपात्रमें दान देनेसे अल्प विभव प्राप्त होता है । यदि पात्रने अविक प्रार्थना की, दाताने दानके समयको टालकर मनको संक्लिटकर दान दिया तो वह दरिद्री होता है, धन मिले तो भी उस धनसे कष्ट ही होता है। उस मनुष्यका धन दुष्ट राजाको सेवन करनेवालेके समान है ॥ १०२ ॥ दातृवात्सल्य माता पुत्रीसौख्यसंरक्षणाभ्यां । प्रीत्या तं जामातरं रक्षतीव ॥ दाता सद्धर्मोपकारमेनं । स्वेनार्थेनानारतं सर्वजीवम् ॥ १०३ ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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