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________________ दानफलविचार अर्थ-यदि कोतवाल सावध रहा तो नगरमें चोर जार आदि दुष्टोंका कोई भय नहीं रह सकता है, इसीप्रकार यदि यह मनुष्य विवेकी रहा तो उसके लिये दोषोंका भय नहीं रहता है । राजाने यदि अपनी प्रजा व सेनावोंका संरक्षण बहुत प्रेमके साथ किया तो उसे शत्रुवोंका भय नहीं रह सकता है, क्रूर उससे दूर जाते हैं । जिसप्रकार सूर्यके निरभ्र होनेपर अंधकार चला जाता है, इसी प्रकार धर्मप्रेमसे गुरुजनोंके प्रति भक्ति जो मनुष्य रखता है, उसके पास पापदोष आदि नहीं ठहरते हैं ॥ ९८ ॥ . देयपदार्थ राजा चारवदन्यवित्तहरणे नानाविधोपायवान् । राजासावचिराद्विनश्यति बलात्तद्वित्तमेनोवहम् ॥ .. वयं सद्व्यवहारवृत्तिनिपुणः पूतार्थचिद्वा विदन् । वैश्यः साधुजनार्जितं हितकरं दाता स एवोत्तमः ॥९९॥ ४. अर्थ-कलिकालके कोई .२ अविवेकी राजा प्रजावोंके द्रव्योंको अपहरण करनेके लिए अनेक प्रकारके उपायोंको करते हुए चोरोंके समान आचरण करते हैं। वे राजा पापके उदयसे शीघ्र नष्ट होते हैं। उनका द्रव्य पापोर्जित है, उस द्रव्यको पात्रदानादि पवित्र कार्यमें कभी ग्रहण नहीं करना चाहिये । परंतु धर्मकार्यमें सदा उत्तमद्रव्यको ही ग्रहण करना चाहिये । द्रव्यार्जन करने. वाले वैश्योंको उचित है कि घे न्यायमार्गसे द्रव्यार्जन करें, सद्वयवहार वृत्ति निपुण वैश्य होना चाहिये अर्थात् निर्दोषतासे व्यापार करना चाहिये । व्यापारके लिए वह जिस समय अन्य देश द्वीपांतर आदिमें जाता है, उस समय वह अपने बंधु, बांधव, पिता, पुत्र, कलन आदियोंसे मोहका परित्याग कर दीक्षित होनेवाले साधुओंके समान दीक्षित होना • चाहिये । अपने गुरुके द्वारा निरूपित सद्धर्मका श्रवण कर उनके द्वारा
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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