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________________ दानफलविचार २०५ - करती है उसी प्रकार भवभवमें अर्जित कर्मसमूह व तत्फलरूष दुष्ट रोगादिकोंको शीघ्र नष्ट करती है ॥ ७७ ॥ निजपतिवदनाग्रे येन सेवा कृतातो । हृदि जनितमहोऽसौ तस्य भाग्यं ददाति ॥ अविलयमिह राजा नित्यसौख्यं च दत्ते । ध्रुवमिह मनुजानां वृद्धसैवैव साध्वी ॥ ७८ ॥ .. अर्थ-लोकमें देखा जाता है कि किसी सेवकने स्वामीकी सेवा निष्ठापूर्वक की तो स्वामी उससे प्रसन्न होता है, और उस प्रसन्नता व उत्साहसे उस सेवकको अनेक संपत्तिको प्रदान करता है । उसकी संपत्ति बढती हुई, क्रमसे वह नित्य सुखको प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार यदि गुरुजनोंकी सेवा की तो यदि वे प्रसन्न हो जाय तो उस प्रसन्नताके उत्साहमें वे भक्तोंको पुण्यधन प्रदान करते हैं, उसके द्वारा उस सेवककी संपत्ति बढकर क्रमशः वह नित्यसुखको प्राप्त करता है। इसलिए आत्महितैषी भव्योंको उचित है कि वे सदा गुरुसेवामें तत्पर रहे ॥ ७८ ॥ .. वृद्ध कौन है ? : वयस्तपोज्ञानकुलैर्विशुद्धैरखंडितैश्चारुचरित्रवगैः ।। :: विशुद्ध पुण्यैरभिवृद्धिमेति स एव वृद्धो वयसा न वृद्धः ॥७९॥ - अर्थ--विशुद्ध आबाल्य अनशनादि तप, ज्ञान, कुल, अखंडितचारित्र व विशुद्ध पुण्यके द्वारा जो बडे हैं व बढ़ते हैं उनको वृद्ध कहते हैं, उमरसे जो बूढे हैं उनको वृद्ध नहीं कहते हैं । परंतु इन बातोंसे जो बढे हैं उनको वृद्ध या गुरु कहते हैं ॥ ७९ ॥ .. यो गुरुसेवा साध्वीं करोति तस्यालयेऽत्र पंचाश्चर्य । अभवदिति शास्त्रसिद्धं कर्तव्या सर्वदा हि गुरुसेवा ।।८०॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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