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________________ २०० दानशासनम् अर्थ-धर्मकार्यमें, स्वामिसेवामें, पुत्रोत्पत्ति में, शास्त्रस्वाध्यायमें, औषधग्रहणमें, भोजनमें व दानमें प्रतिहस्त व्यवहार नहीं करना चाहिये अर्थात् इन कार्योंमें अपने बदले दूसरों से कार्य चलानेका प्रयत्न नहीं करना चाहिये। ये कार्य स्वतः ही करने योग्य हैं॥६६॥ दानफल. श्रीमज्जैनमुनीश्वरेण रचिता भिक्षा हि यस्यालये । पंचाश्चर्यपिहाभवत्सवचनं तत्तच्छ्रते विश्रुतम् ।। मुख्यं चाहतिदानमेव मुनयो नित्यं वदंत्युत्तथा । दातारो महदमदानममलं कुर्वतु संतस्सदा ॥ ६७ ॥ अर्थ-जिस घरमें निर्मल चारित्रधारी जैनमुनियोंने आहार ग्रहण किया उस वरमें पंचाश्चर्यादि हुए यह बात शास्त्रोमें सुनी जाती है । सर्व दानोमें मुख्य *आहार दान है। इसलिए सज्जनदानियों को उचित है कि वे सदा सर्व दानों में श्रेष्ठ व पवित्र अन्नदान को सदा करें ॥ ६७ ॥ आहार और आदर सद्यो जीर्यति सादरातिमधुरा दत्ताहतिर्या तयो- । नश्यत्याईचणो यथा जजति न धौव्यांबुवच्चादरः ।। अंतर्वाह्यपरार्थदा च सकला भावेन भावार्पिता । तद्भावाश्रितपुण्यराशिमतुलं प्रोद्भावयंत्यन्वहम् ॥ ६८ ॥ अर्थ-पुण्यार्जन करनेमें तत्पर श्रावकोंको उचित है कि परम आदरके साथ उत्तम पात्रोंको आहारदान देवें । उन दोनों [ आहार व आदर ] में आहार तो उसी समय जीर्ण होता है । परंतु आदर * मुखेऽक्षि मुख्यं द्रविणे च धान्यं शास्त्रे च मुख्यो विमलागमश्च दानेषु सद्यः फलमन्नदानं लोकेषु सर्वेषु मनुष्यलोकः ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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