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________________ दातृलक्षणविधिः तपःसमर्थेषु तपोधनेषु । त एव कल्पावनिजा इवात्र ॥ फलंति ताभिः सुजनाः सपुण्या- । स्समस्तलोकाः मुखिनश्च तैः स्युः ॥ ४५ ॥ अर्थ-यदि इस लोकमें अनशनादि तपोंको निर्दोष रूपसे आचरण करनेवाले तपोधन हों तो वे ही भव्योंके इष्टार्थको पूर्ण करनेवाले 'कल्पवृक्षके समान हैं। उनके द्वारा सज्जनोंकी सर्व इच्छायें पूर्ण होती हैं। समस्त लोकमें पुण्यमय कार्य होते हैं । एवं समस्त संसारके प्राणी सुखी होते हैं ॥ ४५ ॥ प्रतीकदानमाह क्षीरं तकं दधिघृत जलं शाकमन्नं ददद्यः । शुष्कं पात्रं खपुरलवणं सधैर्याध्वदर्शम् ॥ जंभं बालोदकगुडसिता चुक्यलंग कपित्थम् । त्रीण्यैकं द्वौ वितरति समं यस्सदाता नरः स्यात् ॥४६॥ - अर्थ-जो श्रावक त्यागियोंको (पात्रोंको) उनकी शरीर प्रकृति आदि लक्ष्य में रखते हुए दूध, छाछ, दही, घी, जल, शाक, मुद्गादिक अन्न, उचित पात्र, शुष्क पा वगैरे, लवण, घर व धैर्य, मार्गदर्शन निंबू , कच्चा नारियल का पानी, गुड, शक्कर, चिंच, माहढुंग, कैथ आदि पदार्थों में से एक दो तीन चीजों को जैसी आवश्यकता हो, प्रदान करें, वह उत्तम दाता कहलाता है । कारण इन पदार्थोके प्रदान से शरीरमें स्वास्थ्य बना रहता है । स्वास्थ्यके रहने से संयम स्वाध्यायादिक में वह लग सकता है ॥ ४६ ॥ शास्त्रं तत्त्वं व्यवहनिकृषी भोजनं स्वापिसेवां । स्नान पानं द्रविणमगदं राज्यलक्ष्मीविचारं ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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