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________________ दातृलक्षणविधिः १८९ कहा भी है * सद्यस्तृप्तिकरं चानदानं सद्यः फलप्रदम् । सर्वदानं मुहुः कांक्षावर्द्धनं भववर्धनम् ॥ यः स्वामिशत्रुक्षयदत्तवृत्तस्संदापयन् रक्षति तद्वधं सः । स्वामी भवेदुत्तरजन्मनीव कर्मघ्नपात्राय धनं च देयम् ॥४० अर्थ - जिस प्रकार लोक में स्वामीके शत्रुओंको नाश करने में प्रवृत्त भट उस कार्य में प्रवृत्त अन्य सहायकों को भी धनादि देकर संतुष्ट करता है एवं उनका संरक्षण करता है और उत्तर जन्ममें वही सेवक स्वामी बनजाता है, इसलिए इस पवित्र भावनासे कि अपने कर्मोंको नाश करने में यह पात्र समर्थ है, उसे धनादिक प्रदानकर उपकार करना अपना कर्तव्य है, उपकार करें | दान देवें । शत्रुवोंके नाशके लिए धनादिकका दान आवश्यक है । उसीप्रकार कर्मशत्रुओंको नाश करने के लिए दान देना आवश्यक है ||४०|| भोजनातराय. गृहरोधेऽखिलधान्यप्रशोषणे जंतुघातिपशुबंधे । रोदन विवादनिष्ठुरवचने सावधकर्मयुजि गेहे ॥ ४१ ॥ * वघनजीवान्कृषन्नुर्वी गुर्विणामिव संस्थिताम् तस्मान्न युज्यते विद्भिर्भूमिदानं कदाचन ॥ बंधनात्ताडनाद्दुःखं नित्यं गोर्जायते यतः तस्मान्न युज्यते दातुं गोदानं भव्यदेहिभिः ॥ अग्रासोदकतो बंधाद्दूरादारुह्यते जवात् स्वाघवृद्धेरयोध्वंसान्तस्य दानं न दीयते ॥ कन्यायां जायते रागो रागात्कर्मनिबंधनम् । कर्मणानंतसंसारी तस्मात्तद्दानवर्जनम् || पात्रे हिरण्याचितास्याद्गमनागमनादिषु निमित्तं भवेन्मृत्युस्तस्मात्तन्नैव दीयते ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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