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________________ दातृलक्षणविधिः १८७ पता नहीं है, जो पदार्थ देवें उन्हीसे संतोषपूर्वक ये तृप्त होते हैं, इनका तप ही सचमुचमें तप है, ज्ञान ही वस्तुतः ज्ञान है। इत्यादि प्रकारसे लोक उनकी प्रशंसा करते हैं ॥ ३६ ॥ पाठांतर भुक्तौ येन यदिष्टवस्तुनि मुहुः संयाचिते नास्ति चेतत्तेऽयच्छति दातरीह सभवेत्क्रोधोऽन्यथा शाश्वती दत्वानं परमावयोर्मनसि कं क्लेशं च कर्ता वृथा पुण्यद्रव्ययशः शुभक्षतिरिह दातुः क्षयः पात्रतः ॥३७॥ अर्थ-भोजनके समय यदि जिह्वालौल्यसे किसी मध्यम पात्रने अपनी इष्ट वस्तुकी याचना इशारा व अन्य प्रकारसे करें तो उस समय यदि वह पदार्थ घरमें नहीं हों तो गृहस्थको लाचार होकर नास्ति कहना पडता है। उस समय अपनी इच्छाकी पूर्ति नहीं होनेसे उस पात्रको भी क्रोध आता है । दाताको भी व्यर्थ दुःख होता है । दोनों के हृदयमें मानसिक क्लेश होनेसे पुण्यके बजाय पापका बंध होता है, यशका नाश होता है, एवं शुभफल का भी अभाव होता है। इस प्रकार पात्रके कारणसे दाताको अनेक प्रकार से अनिष्ट परिणाम होते हैं ॥ ३७ ॥ __भोजननिषिद्धस्थान भांडागारिकतुन्नवायगणिकादासीत्वरीचित्रिक- । व्याधश्राद्धिकगीतिमालिककुलालक्षौरिकाणां गृहे ॥ कर्मारादिकुविंदवंदिनटकाहारादितद्वर्तिनां । वर्णी तैलिकमूतकिद्वयतलाराद्यस्य नो भोजयेत् ॥३८॥ अर्थ-वर्णी अर्थात् तपस्वी, बतिक या श्रेष्ठ कुलमें उत्पन्न श्रावक को उचित है कि वह अपने आहारकी विशुद्धि के लिए भंडारी, दर्जी, वेश्या, दासी. व्यभिचारिणी, चित्रकार, भील, मरणसंस्कार करनेवाले,
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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