SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दानशासनम् हैं। दरिद्री लोग नष्ट देशाधिपत्यसे, भाग्यहीनलोग राजाकी सेवासे, आजीविकाप्राप्त लोग अपने स्वामीकी उदासीनतासे, नष्ट होगये और दुर्गतिको गये। उसी प्रकार पार्श्वमुनिके समान कितने ही पापसे पीडित दिगंबर दीक्षा लेनेके बाद भी दुर्गतिको गये । अर्थात् भाग्यहीन व पापी पुरुषोंको अच्छा आश्रय भी नाशके लिये भी हुआ करता है॥ ५१ ॥ विभावसंयुतमिथ्यादर्शनादिमुनीश्वरैः । बभूवुर्धार्मिकैधर्महानिःस्यादविचारकैः ॥ ५२ ॥ अर्थ- मिथ्यादर्शनादि विभावोंसे युक्त धार्मिक कहलानेवाले अविचारी मुनियोंसे कितने ही बार धर्म की हानि हुई न होगी ॥५२॥ वैद्यान्विद्विषतां रुजामधिकता न स्पांदणो भेषजैः । स्वस्वामिद्विषतां न जीवितमघाधिक्यं च साधुद्विषाम् । स्वानीकद्विषतां च धावति रमा राज्यं च यद्यद्विषां । लाभस्तैन जलं विना फलति नो भक्तिं विना नो गुणः ५३ अर्थ-जो वैद्योंके साथ द्वेष रखते हैं ऐसे रोगी पुरुषोंके रोग बढेंगे ही। चाहे जितने औषध लेनेपर भी गुण नहीं होगा । अर्थात उनके रोग नष्ट नहीं होंगे। जो अपने मालिक के साथ द्वेष रखते हैं वे मूर्ख लोग अपनी उपजीविकाका नाश करते हैं। उसी तरह जो दुष्ट लोग साधुओंका द्वेष करते हैं उनको तीव्र पातकोंका नियम से बंध होता है । जो अपने सैन्यसे द्वेष करते हैं ऐसे राजाओंकी लक्ष्मी और राज्य नष्ट होता है। अभिप्राय यह है कि जो जिस हितकर वस्तुका द्वेष करता है उससे उसका फायदा नहीं होगा हानि ही होगी। जलके विना वृक्ष न बढेगा न फल देगा। उसी प्रकार यदि हम साधुके गुणों में भक्ति न करेंगे तो हमारा कल्याण नहीं होगा ऐसा समझकर उनकी उपासना हमेशा करनी चाहिये । ऐसा इस श्लोकका अभिप्राय है ॥५३॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy