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________________ ११० दानशासनम् - - - तद्योगिन्या योगिनश्चैकवासे न स्थातव्यं वाचनीयं सदा न ॥ २० ॥ अर्थ-साधुवोंको उचित है कि वे स्त्रियोंकी शय्यामें कभी सोवे नहीं और उसे स्पर्शन भी न करें । घोडौके साथ घोडेको बांथे तो उस घोडेको कामोद्दीपन होता है उसी प्रकार एकांतमें ( एक जगह ) अर्जिकाके साथ मुनि कभी न रहे न कोई पठन-बाउन करें ॥२०॥ आर्यिकावोंके साथ मुनियोंका निवास निषेध. सहार्यिकाभिर्मुनिभिः स्वाध्यायोऽथ जपस्तवः । न कर्तव्योऽत्र कर्तव्ये व्रतभंगो भवेत्तदा ॥ २१ ॥ अर्थ-आर्यिकावोंके साथ मुनिगण स्वाध्याय, स्तोत्र, जप वगैरह कुछ भी नहीं करें। यदि इसकी पर्वाह न कर जो कोई करेंगे उन दोनोंका व्रतभंग होता है ॥ २१ ॥ एकाकी विहारसे दोष. जारास्त्रीश्चुरिणो बलाद्धनवतो भूमि ससस्यां मृगा। गावोरीजनपाःशशांश्च शुनका व्याघ्रा मृगान्दर्दुरान् ॥ सो गाश्च तरक्षवो भुवि यथा कामति बालान्मुनीनप्येकान्मदनादयो विहरतः क्रोधादिदोषा इमे ॥२२॥ अर्थ-जिस प्रकार लोकमें यह देखा जाता है एकाकी विहरण करनेवाली पतिव्रताको जारलोग अपहरण करते हैं, धनवानोंके धनको बलात्कारसे चोर चुराते हैं, दुश्मृग गायोंको खा डालते हैं, सस्यसहित भूमिको राजा ले लेता है । शत्रुवोंको कुत्ता काटता है, शशोंको शिकारी मारता है । मृगोंको व्याघ्र खा डालता है, मेंढकोंको सर्प निगलता है, इस प्रकार सर्वत्र आक्रमण देखा जाता है। उसी प्रकार
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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