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________________ १२८ दानशासनम् अर्थ-गंध, वर्ण, और रससे भ्रष्ट दही, घी दूध व अन्य पक्वान्न पर्युषित कहलाते हैं । ऐसे अन्य द्रव्य भी निंदित है ॥ ६ ॥ ग्रामानीतं चापणक्रीतमन्नं- । चान्योद्दिष्टं देवयक्षादिसंज्ञम् ॥ मिथ्यादृष्टिस्पृष्टमुच्छिष्टमेत नीचाख्यातं योगिने नैव दद्यात् ॥ ७ ॥ अर्थ-जो आहार दूसरे गामसे लाया हुआ हो, बाजार ( होटल ) से खरीदकर लाया हुआ हो, दूसरोंके ( मिथ्यादृष्टि ) उद्देश्य से बनाया गया हो, गृहदेवता, यक्षदेवता भूतादिकोंको अर्पणके लिये बनाया गया हो, मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा छूया हुआ हो, उच्छिष्ट हो, नीचोंके लिये बनाया गया हो, ऐसे आहारको योगियों को कभी नहीं देना चाहिये ॥ ७ ॥ पुनरुष्णीकृतं सर्व । सर्व धान्यं विरूढकं ॥ दशरागोषितं कंसे न दद्यान्मुनये घृतम् ॥ ८ ॥ - अर्थ-फिरसे गरम किया हुआ आहारद्रव्य, अंकुर आया हुआसर्व धान्य, एवं कांसे के पात्रमें रखा हुआ दस दिनका घृत यह मुनियों को आहारदानमें देने के लिये निषिद्ध है ॥ ८ ॥ कारण. एतदाहारभुक्त्यैव चेतोऽस्वाथ्यं ततो गदाः। तपोभंगस्ततो दातुश्चांतरायो महान्भवेत् ॥ ९ ॥ __ अर्थ-उपर्युक्त प्रकारके सदोष आहारोंके भक्षणसे चित्तमें अस्वास्थ्य उत्पन्न होता है । एवं अनेक रोगादिक उत्पन्न होते हैं। और तपश्च में विघ्न उपस्थित होता है, इतना ही नहीं, दाताको महान अंतराय कर्मका बंध होता है ॥ ९॥ १ पुनरुष्णीकृतं सर्व । क्षीराहारोदकादिकं । सर्वरुग्जनलहेतुःस्या- द्विषवज्जीवितापहं ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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