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दानशासनम्
पृष्ठ श्लोक
१६१ इस पंचमकाल में श्रावक लोग पुरोहित को किस दृष्टिसे देखते हैं ?
७८-७९ १४२-४५ १६२ जिनपूजकको आदर से देखनेका उपदेश ७९ १४६ १६३ पंचम काल में लोगोंकी प्रवृत्ति ८०-८१ १४७-१८ १६४ जिनालयमें कलह व अभक्ष्यभक्षणका निषेध ८१ १४९-५० १६५ पात्रोंकी निंदा करनेवाला डोंबारी होताहै ८२ १५१ १६६ सज्जन हमेशा उपकार ही करते हैं . ८२ १५२ १६७ मोही जीव सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रसे भ्रष्ट होते हैं८३ १५३ १६८ नारियल के समान लोककी प्रवृत्ति होती है ८३ १५४ , १६९ प्राचीन आर्वाचीन राज्यपद्धति ८४ १५५-५६ १७. पूज्य सज्जनोंको राज्य में पीडा न देनेका उपदेश८५ १५७ १७१ राजा सेवकों को संतुष्ट रक्खें . ८५ १५८ १७२ स्वामी सेवक के धन को अपहरण न करें ८६-८७ १५९-६१ १७३ सेवकोंपर ईर्ष्याभाव न करें
८७ १६२ १७४ सेवकोंका उपकार न करनेवाला स्वतः सेवक बन जाता है
८७ १६३ १७५ भृत्यकी रक्षा करने का उपदेश
८८ १६४ १७६ परद्रव्यका हरण न करें
८८१६५.६६ १७७ चोरी से होनेवाली अवस्था ८८-८९ १६७-१६८ १७८ जिनधर्भ महान् वृक्ष के समान है। ८८ १६९ १७९ वंचकनीसे मानहानि होता है
९० १७० १८० परस्त्री गुरु-देव-धन अग्राह्य है
९० १७१ १८१ देवयादिसे पुण्य नष्ट हो जाता है ९० १७२ १८२ द्रव्यापहरणका फल
९१-९२ १७३-७८ १८३ अत्यंत लोभ से धन कमानेका निषेध ९३ १७९