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________________ ८४ दानशासनम् समुद्र में सदा पानी रहने से उसके कारण से उत्पन्न नारियल के वृक्ष में भी सदा फल रहता है । इसी प्रकार लोकमें ऐसे बहुत से पुण्यवान् मौजूद हैं जो अपने पूर्वोपार्जित अक्षय पुण्यके कारण से प्राप्त संपत्ति से सदाकाल पुण्य कार्योंकी वृद्धि करते हैं । अपनी संपत्ति से वे सदा धर्मप्रभावनाका का कार्य करते हैं । इससे जो पुण्यका बंध होता है उसी का नाम पुण्यानुबंधी पुण्य है । परंतु पर्वतादि में उत्पन्न होनेवाले बहुतसे वृक्ष ऐसे हैं जिनमें कभी फल लगते हैं कभी नहीं लगते हैं। इसी प्रकार कितने ही लोक में ऐसे मनुष्य हैं जो पूर्वपुण्यके द्वारा संपत्ति को प्राप्त कर भी कभी उसे धर्मकार्यमें और कभी पापकार्य में लगात हैं, उनको धर्म और पाप दोनों में समानबुद्धि है ॥ १५४ ॥ यावद्धान्यं भवति भुवि तत्तावदिच्छंति लोका-स्तद्वत्पांति स्वविषयमिमं पूर्वभूपाः स्ववृद्धयै || अज्ञानांधा जनमिह यथा पूतिनीं नारसिंहो । द्रव्याहृत्यै निजकुलहतेर्भूमिपाः पीडयति ॥ १५५ ॥ । अर्थ - लोक में किसानोंके स्वभावमें उनको जिस वर्ष जितने अधिक धान्यकी उत्पत्ति होती हो उतना ही वे चाहते रहते हैं । उससे अधिक संतुष्ट होते हैं धर्मात्मा राजा भी उससे अपने राज्यकी ही उन्नति है ऐसा समझकर उनकी अच्छी तरह रक्षा करते थे, परंतु खेद है कि आजकलके अज्ञानसे अंधे हुए राजा उन प्रजावोंको जिस प्रकार नारसिंहने पूतिनीको पीडा देकर मार डाला उसी प्रकार अपने स्वार्थ के लिए प्रजावों के द्रव्यको अपहरण कर उन्हे पीडा देते हैं । उन्हे यह मालुम नहीं है कि उस पापके कारण उनके कुल का ही क्षय होता है || १५५ ॥ 1 करोऽधिकोऽभूत्फलमल्पमुर्व्या । सेवाधिका स्वल्पभृतिः कथंचित् ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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