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________________ दानशासनम् ARANAhranARAMM - सेवकोंसे कराते हैं । अतएव सम्यक्त्वसे विमुख है । यह कालका दोष है। जिस प्रकार राजाका अपराधी सदा दुःखी रहता है उसी प्रकार यह पापात्मा भी दुःख उठाता रहता है ॥ १४१ ॥ , . न्यक्सेवाकृदपुण्यवानकुलजो भिक्षार्जितद्रव्यमुक् । भूपास्थानगतागतश्च मनुजो नीचोपि पूज्यो भवेत् ॥ .. तं विभ्यंति निरीक्ष्य चाटुवचनं सर्वे वदंत्यन्वहं । बाते जिनपूजकं जडजनाः पश्यंति दासं यथा ॥१४२॥ · अर्थ-नीचवृत्ति करनेवाला, पापी, नीचकुलोत्पन्न, भीख मांगने वाला व्यक्ति भी यदि राजदरबारमें आता जाता रहता है, मजाके साथ विशेष बोलता चालता रहता है तो वह नीच होनेपर भी लोकके लिए पूज्य होजाता है । सब लोग उससे इसलिए डरते हैं कि यह कुछ राजासे चुगलीकर हमारा अहित करेगा। इसलिए सब लोग उसकी खुशामद करते हैं । और मीठे २ बोलते हैं । परंतु बड़े आश्चर्यकी बात यह है कि जिनेंद्र भगवंतकी सेवा करनेवाले पुरोहितको बहुत कष्ट देते हैं, अज्ञानी जन उन्हे नौकरोंके समान देखते हैं । यह उचित नहीं है ॥ १४२ ॥ वेश्यादासीजनानामुपकृतिमधुना कुर्वते नो विषादं । तेषामाकूतमीषन्न खलु च कलुषीकुर्वते भोगिनो ये ॥ सा वेश्या सौख्यदास्ते न च यदि सुखदास्तद्विरोधान्न सौख्यं मत्वैवं तैर्विरोध न च जिनभजकं नेंद्रमेनं तथैवं ॥ १४३ ॥ अर्थ-जिस प्रकार लोक में ऐसा देखा जाता है कि जो मनुष्य वेश्यासेवन करना चाहता है वह सब से पहिले उसे वेश्या के दासीका उपकार करता है । उस दासीको कष्ट नहीं पहुंचाता है। उस के विचार में जरा भी धक्का नहीं पहुंचने देता है, वह दासी जैसे कहे वैसे ही मानता है। क्या उसे सुख देनेवाली वेश्या है ? अथवा वह दासी है?
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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