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________________ चतुर्विधदाननिरूपण की आवश्यकता है, योग्य समयके आये विना कोई कार्य नहीं हो सकता है ॥ १३६ ॥ रोगास्सत्यखिला भिषग न च विदन्शस्तो न शस्तो गद-। चेदिच्छा न च रोचते विशति नो नास्ते स्थिते तेऽगदे ॥ बदेते विधुसिंधुवत्पतपति क्रुध्यति चाज्यम्बुवत् । . निस्वग्रंथिरिव प्रभाति च तया धर्मोऽपि पापात्मनि ॥१३७॥ अर्थ-जिस प्रकार किसी जगह रोग तो बहुत फैले हैं परंतु वहांपर उन रोगोंकी अच्छी तरह निदान कर चिकित्सा करनेवाले कोई वैद्य नहीं तब वे रोग दूर कैसे हो सकते है ? । कदाचित् वैद्य हो भी वह आयुर्वेदशास्त्रके अनुसार पूर्ण चिकित्साविषयको नहीं जानता हो, कदाचित् जानता भी हो तो उसके हस्तलक्षण अच्छे न हो अर्थात् योगायोगसे उसके हाथसे रोगी अच्छे म होते हों, कदाचित् हस्तलक्षण अच्छे भी हो तो औषधि न हो, कदाचित्- औषधि हो तो रोगीको औषधि लेनेकी इच्छा न हो, इग्छ। यदि हो तो उसे वह औषधि रुचिकर न हो, कदाचित् रुचिकर हो भी वातपित्तादिक दोषों के विकार से शरीरमें औषधि प्रवेश न करें, प्रवेश करें तो भी वहांपर बहुत देरतक न रहे, वमन इत्यादि होकर बाहर आयें, कदाचित् कुछ समयतक रहें तो भी दूसरे कारणोंको पाकर रोगकी वृद्धि करें इन सब अवस्थाओंमें रोगीको आराम होना कठिन है । इन सब बातोंमें सुयोग मिलनेके लिए काललब्धिं की आवश्यकता है । ठीक इसी प्रकार जिस जगह पर अधर्मवासना अधिक फैली हो, लोगोंके हृदय में अधर्मविचार विशेष करके हो, उस स्थानमें उन अधर्म विचारोंको शास्त्रोपदेश.के द्वारा दूर करनेवाले गुरु नहीं होते हैं, कदाचित् गुरु कहलानेवाले हों भी वे शास्त्रज्ञानसे शून्य रहते हैं । कदाचित् संपूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता गुरुवोंके अस्तित्व हो फिर भी उनके उपदेशका प्रभाव नहीं होता हो, कदाचित
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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