SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दानशासनम् जिस प्रकार दुःखी होता है उसी प्रकार वह व्यक्ति भी दुःखी होता है ॥ १२४ ॥ कथं चिदेकं पणमर्जयित्वा सवृद्धयेऽदादनदस्य दीनः ॥ मूळं न वृद्धिर्न वचो निशम्याक्रोशन्ति पापाय च पीडयंति । अर्थ-बडे कष्ट से दीन आदमी थोडासा धन कमाते हैं । तथा श्रीमानके पास सूद के लिए वह धन रखते हैं परंतु कितनेक दुष्ट धनिक मूलधन भी देते नहीं तथा सूद भी देते नहीं उन का यह दुर्व्यवहार देखकर दीन आदमी दुःखमे आक्रोश करते हैं । ऐसे कार्यसे श्रीमान् लोक पापके भागीदार बनते हैं ।। १२५ ॥ योऽत्र स्वाश्रितजीवयुग्ममदयन्दत्वोचितार्थान्सदा । विष्टिं कारयतीव गोपशुनरैःकार्य कृतं कारितं ॥ सर्व नश्यति तस्य तेन फलति क्षेत्रं न सर्व कृतं । नैष्फल्यं भवतीत्यवेत्य सुकृती सर्वानलं पीडयेत् ॥१२६॥ अर्थ-किसान यदि अपने आश्रित द्विपद और चतुष्पद जीवोंको अन वस्त्रादिकको देकर रक्षा नहीं करता है तो उसके किया हुआ, कराया हुआ खेत वगैरह सब नष्ट होते हैं। एवं धान्य वगैरह समृद्धरूपसे उत्पन्न नहीं होंगे। इसी प्रकार जो स्वामी अपने आश्रयमें रहनेवाले द्विपद चतुष्पद प्राणियोंके प्रति दया नहीं करता है, उनकी रक्षा नहीं करता है उसके संपूर्ण कार्य व्यर्थ होते हैं उसको किसी भी कार्यमें सफलता नहीं मिलती है ॥ १२६ ॥ 'शैलूषविवमिव कायकृतं च सर्व । चेतोविना तनुवचःकृतकर्म सर्व ॥ १ भुक्तमपथ्यमनग्नेस्सद्यः संपद्यते यथा रोगः ॥ . कृतदोषार्जितवित्तं प्राणानंगं च हंति सद्यो यत् ॥ -
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy