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________________ ६८ दानशासनम् anwar होता ही है । देव के धन का हरण करना विषके समान है । वह अपना भाग्य, परिग्रह, धन सेना वैगरह का शीघ्र नाश करता है। तथा कृष्णपक्षके चंद्रसमान स्वयं भी नष्ट होता है ॥ ११९ ॥ जिनार्चा प्रदत्तार्थे हीनत्वं यः करोति चेत् । तस्य भाग्यस्य पुण्यस्य हीनत्वं सर्वथा भवेत् ॥ १२० ॥ अर्थ-जिनपूजाके लिए दिए हुए द्रव्योंसे कुछ अपने लिए लेकर कुछ जिनपूजाको जो कोई देता हो उसका भाग्य व पुण्य दोनोंका अवश्य नाश होता है ॥ १२० ॥ येन ग्रामधनं जिनस्य च हृतं स्वल्पाय वहथंद । क्रीतं दण्डितवंचितं त्वपहृतं त्र्यब्दांतरे व्यंतरे ॥ तस्य स्यात्स्वविरोधताप्यपयशो तेजोभिमानक्षयो। । मृत्यू रुक्च धनव्ययोऽत्र विफलास्तास्ताःकृता याः क्रियाः॥ अर्थ-जो कोई जिनमंदिरके लिए अर्पित ग्राम व धनको अपहरण करता हो, एवं बहुत कीमतके थोडे कीमतमें खरीदता हो, जुर्माने के रूपमें लेता हो, धोका देकर लेता हो, अथवा और किसी तरह अपहरण करता हो उस पापी व्यक्तिको उसके तीव्र पापोदयसे तीन घडीके अंदर तीन प्रहरके अंदर, तीन दिन के अंदर, तीन पक्षके अंदर, तीनमास के अंदर, तीन अयनोंके अंदर, अथवा तीन वर्षके अंदर अपने बंधु मित्र भार्या पुत्र इत्यादिसे वैर विरोध अवश्य होगा। लोकमें उसका अपवाद होगा, उसका तेज घटेगा, उसका धन नष्ट होगा, उसका मरणभी हो सकेगा विशेष क्या ? वह जो कुछ भी क्रिया करें उसमें उसको सफलता नहीं मिलेगी ॥१२॥ पीतं येन विषं च तस्य सकलान्यंगानि पंचेंद्रिया- । ण्यंग बुद्धिरियं च चित्तमभवनन्यानुकूलानि वा ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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