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________________ चतुर्विधदाननिरूपण अन्य प्यारे पदार्थों के समान धर्मको भी प्राण जानेपर भी उसमें हानि नहीं पहुंचने देना चाहिये ॥ १११ ॥ ६५ ये कुर्बति जिनोत्सवेष्वसरला विघ्नं दिदृक्षागतां - । स्तनिंद्रानपि संघ सेवकजनानन्यस्तिरस्कुर्वते ॥ छिन्द्युस्ते जिनधर्ममात्मसुकृतं स्वर्गापवर्गप्रदं । तेषां स्त्रीसुतमित्रराज्यविभवच्छेदोऽपि संजायते ॥ ११२ ॥ अर्थ -- जो कुटिल श्रावक जिनपूजाको देखने के लिए जिनमंदिर में जाकर जिनपूजा में विघ्न डालते हैं, एवं जिनपूजा देखनेकी इच्छासे आनेवाले श्रावकोंको विघ्न डालते हैं, एवं इंद्रके समान रहनेवाले पुरोहितोंको उनके कार्य में विघ्न डालते हैं, एवं चतुःसंघकी सेवा करनेवाले धर्मात्माओं को बाधा पहुंचाते हैं एवं अन्यस्थानीय श्रावकोंका तिर - स्कार करते हैं वह अपने धर्म, स्वर्ग मोक्षको देनेवाले निर्मल पुण्य इत्यादि सबका तिरस्कार करते हैं ऐसा समझना चाहिये अर्थात् उनको तीव्र पापबंध होता है। एवंच उनके स्त्री, पुत्र, धन, मित्र, राज्यादिवैभव आदि सब इसी पापके कारणसे नष्ट होते हैं ॥ ११२ ॥ देशे नष्टे धनमुखसमस्तार्थनाशो भवेद्वा । स्थानीये स्यात्स्वबलतनुवत्स्वावरोधादिनाशः ॥ श्रुत्वा दृष्ट्वा रिपुजनहते राज्ञि तूष्णीं स्थितेऽज्ञे । धर्मोत् तमधिपते (१) सर्वनाशस्त्रिवर्षात् ॥ ११३ ॥ अर्थ – राजा यदि शत्रुओंके द्वारा देशके नष्ट होने की बात सुनकर चुप रहता है अर्थात् प्रतीकार नहीं करता है उस अवस्थामें उसके देश के समस्त द्रव्य नष्ट होंगे । यदि अपने स्थानीय राजधानीको शत्रुओंने आकर घेर लिया उस अवस्था में वह चुप रहेगा तो शत्रुसेना आकर उसकी सेना वगैरह को वशमें करलेगी । इतना ही नहीं उसके सब राज्यसंपत्तिको छीनकर अंतःपुर में रहनेवाली राणियोंको भी बिगा -
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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