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________________ ( ६२ ) गुणस्थानक्रमारोह. उपदेश करे या हिंसाकी प्रवृत्तिवाले ग्रंथोंकी रचना करे, इत्यादिको शास्त्रकारोने रौद्र ध्यानका हिंसानुबन्धी नामक प्रथम भेद फरमाया है । हिंसानुबन्धि रौद्र ध्यानका वर्णन शास्त्रोंमें बहुत ही विस्तारसे किया है, परन्तु सारांश यही है कि किसी भी जीवको दुःख देनेका जो मनमें विचार होता है और हिंसा करके किसी अन्यने जो चीज बनाई हो उसका अनुमोदन करना, इसको ही हिंसानुबन्धि रौद्र ध्यान कहते हैं | अब मृषानुबन्धि नामक रौद्र ध्यानके दूसरे भेदका स्वरूप लिखते हैं । , असत्यचातुर्यबलेन लोकाद्वित्तं ग्रहीष्यामि बहुप्रकारं । तथाश्वमातङ्कं पुराकराणि, कन्यादि रत्नानि च बन्धुराणि ॥ १ ॥ असत्यवाग्वंचनया नितान्तं प्रवर्तयत्यत्र जनं वराकं । सद्धर्ममार्गादतिवर्तनेन, मदोद्धतो यः स हि रौद्रधामा ॥ २ ॥ ज्ञानार्णव ॥ अर्थ-असत्य चतुराई के बलसे मैं लोगों से बहुत प्रकारसे धन ग्रहणं करूँ, असत्य वचनकी वंचना द्वारा लोगों से अश्व, हाथी, पुर, गाँव, कन्यायें, अनेक प्रकारके रत्न वगैरह ग्रहण करूँ ( और उससे अपने जीवनको सुखपूर्वक व्यतीत करूँ ) अपने असत्य वचनकी पटुतासे भोले भाले जीवोंको सद्धर्म मार्ग से विमुख कर मनकल्पित मार्गमें चलाकर मन माना मत चलाऊँ । जिस मनुष्य के अन्तःकरणमें ये पूर्वोक्त असत्य विचार पैदा होते हैं, उस मनुष्यको रौद्र ध्यानका धाम कहते हैं । असत्य भाषणको मृषावाद कहते हैं। असत्य या मृषावाद संसार में किसी भी विवेकी सभ्य पुरुषको प्रिय नहीं । असत्य यह एक बड़ा भारी महा दोष है। असत्य वचनके श्रवण मात्र से ही सभ्य मनुष्यों के हृदयमें
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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