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________________ पाँचवाँ गुणस्थान. (२३) ज्यों ज्यों देशविरति अधिकाधिकतर वृद्धिगत होती जाती है, त्यों त्यों आर्त और रौद्रध्यान भी अधिकाधिकलर मन्दताको प्राप्त होते जाते हैं। तथा जितनी जितनी आर्त और रौद्रध्यानकी मन्दता होती जाती है, उतनी ही उतनी मन्दताको प्राप्त हुए हुए धर्मध्यानमें अधिकता प्राप्त होती है। परन्तु इस गुणस्थानमें धर्मध्यानकी उत्कृष्टता प्राप्त नहीं होती, और यदि किसी समय धर्मध्यानकी उत्कृष्टता उसे प्राप्त हो जाये, तो फिर वहाँ पर भावसे उसे सर्व विरतिपना प्राप्त हो जाता है। पूर्वोक्त मध्यम धर्मध्यानके अन्दर छः कृत्य, ग्यारह श्रावककी प्रतिमा और श्रारकके बारह व्रत, ये सब देशविरति गुणस्थानवी जीव पाल सकता है । ऊपर बताये हुए छः कृत्योंका स्पष्टीकरण नीचे मुजब समझना । देवपूजा गुरुपास्तिः, स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ॥ १॥ अर्थ-देशविरति पंचम गुणस्थानमें रहनेवाले श्रावकको १ देवपूजा, २ गुरुमहाराजकी सेवाभक्ति, ३ यथाशक्ति स्वाध्याय, ४ पाँचों इन्द्रियोंका दमन (निग्रह), ५ यथाशक्ति तपश्चर्या, तथा ६ दान देना, ये छः कृत्य प्रतिदिन करने चाहियें । देशविरति गुणस्थान स्थायी श्रावकको बारह व्रत सदैव पालने चाहियें, जिन बारह व्रतोंका यहाँ पर प्रथम नाम बताकर स्वरूप लिखते हैं। पहला व्रत-१ स्थूल हिंसाका परित्याग, २ स्थूल मृषावादका परित्याग, ३ स्थूल चोरीका परित्याग, ४ परस्त्रीका सर्वथा परित्याग, ५ स्थूल परिग्रहका परिमाण करना, ६ अपने आनेजानेके लिए दिशाओंका परिमाण करना, ७ भोगोपभोग करनेमें परिमाण करना, ८ अनर्थदंडका सर्वथा परित्याग करना, ९ सामायिक व्रत ग्रहण करना, १० देशावकाशिक व्रत ग्रहण करना, ११ पौषध उपवास व्रत ग्रहण
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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