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________________ (१०) गुणस्थानक्रमारोह. मेंसे एक तीर्थकरनामकर्मको वर्जकर बाकी की एकसौ। छहतालीस कर्म प्रकृतियां सत्तामें स्थित रहती हैं । ॥ दूसरा गुणस्थान समाप्त ॥ अब तीसरे मिश्र गुणस्थानका स्वरूप लिखते हैंमिश्रकर्मोदयाजीवे, सम्यग्मिथ्यात्वमिश्रितः। यो भावोन्तर्मुहूर्त स्यात्तन्मिश्रस्थानमुच्यते ॥१३॥ श्लोकार्थ-मिश्रकर्मके उदयसे जीवके अन्दर सम्यक्त्व और मिथ्यात्व मिश्रित जो अन्तरमुहूर्त भाव रहता है उसे मिश्रगुणस्थान कहते हैं । व्याख्या--मोहनीयकर्मकी द्वितीय प्रकृतिरूप दर्शनमोहनीय मिश्रकर्मके उदयसे जीवके अन्दर जो समकाल है, याने सम्यक्त्व और मिथ्यात्वमें समानताजन्य अन्तरमुहर्त जो मिश्रित भाव है, उसे मिश्रिगुणस्थान कहते हैं। सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके परस्पर मिलजानेपर जो जात्यन्तर भाव उत्पन्न होता है, उसेही मिश्र कहते हैं । . इसी बातको पुष्ट करनेके लिए शास्त्रकार स्वयमेव दोश्लोकों द्वारा दृष्टान्त फरमाते हैंजात्यन्तरसमुद्भूति, वडवाखरयोयथा । गुडदनोः समायोगे, रसभेदान्तरं यथा ॥ १४ ॥ तथा धर्मद्वये श्रद्धा, जायते समबुद्धितः। मिश्रो सौ भण्यते तस्माद्भावोजात्यन्तरात्मकः॥१५॥ श्लोकार्थ-जिस प्रकार घोड़ी और गधेका संयोग होनेपर जात्यन्तर (खच्चर) उप्तन्न होता है, तथा गुड़ और दहीके संयोगसे जैसे अन्य ही रसान्तर पैदा होजाता है, वैसे ही मिथ्यात्व
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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