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________________ चौदहवाँ गुणस्थान, (१८७) व्याख्या-संसारके भिन्न भिन्न मतान्तरोंकी अपेक्षासे मोक्षका स्वरूप अनेक प्रकारका माना गया है । बौध मतवाले अत्यन्ताभाव रूप मोक्ष मानते हैं । नैयायिक तथा वैशेषिक मतवाले ज्ञानाभाव रूप मोक्ष मानते हैं, नूतन पंथी याने दयानन्दके अनुयायी लोग मोक्षसे मोक्षात्माको पुनः संसारमें अवतार लेना तथा पुनः मोक्ष होना मानते हैं। कितने एक विषयलोलुपी मोक्षको विषय सुखमयी मानते हैं, उनका मन्तव्य है कि मोक्षमें विषय सुख भोगनेके लिए बड़ी सुन्दर रूपवाली अप्सरायें मिलती हैं, वहाँ पर खाद्य पदार्थ बड़े स्वादीष्ट मिलते हैं, तथा पीनेको बड़ी रसीली मदिरा मिलती है और रहनेके लिए सुन्दर बाग बगीचों सहित मनोहर मकान मिलते हैं । इत्यादि मन इच्छित वस्तुओंकी प्राप्तिरूप मोक्ष मानते हैं । जैमिनी मुनिका मन्तव्य है कि आत्मा कभी मोक्ष हो ही नहीं सकती। कितने एक खरड़ ज्ञानी कहते हैं कि जो वेदोक्त अनुष्ठान करता है वह सर्वथा उपाधिरहित तो नहीं हो सकता किन्तु शुभ पुण्यफलसे सुन्दर देह प्राप्त करके ईश्वरके पास जाकर कितने एक कल्पों तक सुख भोगता है और जहाँ पर मरजी हो वहाँ पर उड़कर चला जाता है । इस प्रकार वहाँ पर चिरकाल तक सुख भोगकर पुनः संसारमें जन्म धारण करता है। इसी तरह अनन्त काल पर्यन्त संसारमें करता रहता है, किन्तु मोक्षात्मा सदा काल एक स्थान पर स्थिति नहीं करती। इस प्रकार भिन्न भिन्न मतवाले मोक्षका स्वरूप भिन्न भिन्न मान बैठे हैं, परन्तु इनमेंसे एकका भी मन्तव्य शुद्ध नहीं, क्योंकि अत्यन्ताभाव रूप मोक्ष माननेसे तो आत्माका ही अभाव हो जाता है तो फिर मोक्ष ही किसका हुआ ? इस लिए अत्यन्ताभाव रूप मोक्ष माननेसे आत्माका अभाव रूप महान् दोष उपस्थित होता
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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