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________________ ( १७० ) गुणस्थानकमारोह. श्लोकार्थ-सयोगि गुणस्थानके अन्तमें अंग विच्छेद होनेके कारण स्वप्रदेशघनत्व से अन्तिम अंग संस्थानसे तीन भाग कम अवगाहना करता है || व्याख्या - पूर्वोक्त सयोगि केवलि नामक तेरहवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, अस्थिरनाम, अशुभनाम, शुभविहायो गति, अशुभविहायो गति, प्रत्येकनाम, स्थिरनाम, शुभनाम, तथा पूर्वोक्त छः संस्थान, अगुरुलघु, उपघातनाम, पराघातनाम, श्वासोश्वास, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, निर्माणनाम, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, प्रथम संहनन, सुस्वरनाम, दुःस्वरनाम, एवं साता वेदनीय द्विकमेंसे एक प्रकृति, इस प्रकार इन तीस कर्म प्रकृतियोंका उदय विच्छेद होता है । यहाँ पर अंगोपांगों का उदय न होनेसे चरम अंगोपांग गत नासिकादिके छिद्रोंको पूर्ण कर देनेसे केवली प्रभु आत्म प्रदेशका घनत्व करता है, अत एव अन्तिम अंग संस्थानकी अत्रगाहनासे तृतीय भाग कम अवगाहना करता है । सयोगि गुणस्थानमें रहा हुआ उसके उपान्त्य समय पर्यन्त केवली प्रभु एकवि बन्धक होता है । ज्ञानान्तराय तथा दर्शन चतुष्कके उदयका अभाव होनेसे बैतालीस कर्म प्रकृतियोंको वेदता है । तथा निद्रा प्रचला, ज्ञानान्तराय दशक याने पाँच प्रकृतियाँ ज्ञानावरणीयकी तथा पाँच ही प्रकृतियाँ अन्तरायकी और चार प्रकृतियाँ दर्शनावरणीय संबन्धि एवं सोलह प्रकृतियों की सत्ता नष्ट होने से पचासी कर्म प्रकृतियोंकी सत्ता रखता है । पूर्वोक्त प्रकारसे सयोगि गुणस्थानको समाप्त करके केवली प्रभु अयोगि गुणस्थानको प्राप्त करता है ॥ || तेरहवाँ गुणस्थान समाप्त ॥ E
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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