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________________ तेरहवाँ गुणस्थान. ( १६३ ) व्याख्या - केवली भगवान जिस वक्त वेदनीय कर्मके दलियोको आयु कर्मके समान करनेके लिए समुद्घात करता है उस वक्त वह प्रथम समयमें अपने असंख्य आत्म प्रदेशोंको ऊँचे नीचे लोकाकाश पर्यन्त दण्डाकारमें विस्तृत करता है । दूसरे समय में पूर्वापर दिशाओं में आत्म प्रदेशों को लोक पर्यन्त ही कपाकी आकृति में विस्तृत करता है । तीसरे समय में दक्षिणोत्तर दिशाओंमें लोक पर्यन्त आत्म प्रदेशोंको फैलाता है । उस समय . केवल ज्ञानीके ज्ञानसे उन आत्म प्रदेशोंकी आकृति दधि विलो - ड़नेके मंथानके समान होती है। चौथे समयमें मंथानके समान आकृति वाले आत्म प्रदेशों में जो बीचके आँतरे - विभाग खाली रहे थे उन्हें आत्म प्रदेशोंसे परिपूर्ण करता है । लोकाकाशके प्रदेश भी असंख्य हैं और आत्माके प्रदेश भी असंख्य हैं, अतः चतुर्थ समयमें लोकाकाशके अन्दर कोई भी ऐसा आकाश प्रदेश नहीं रहता कि जिसे केवली भगवानके आत्मप्रदेशोंने स्पर्श न किया हो, अर्थात् चौथे समयमें केवली प्रभु सर्वलोक व्यापी होता है । अब केवल प्रभु सर्वलोक व्यापि आत्मप्रदेशोंको किस क्रमसे पीछे संहरता है सो कहते हैंएवमात्मप्रदेशानां प्रसारणविधानतः । कर्मलेशान् समीकृत्यो क्रमात्तस्मान्निवर्त्तते ॥ ९९ ॥ श्लोकार्थ - इस प्रकार आत्मप्रदेशोंको विस्तीर्ण करने के विधि से कर्म शोंको समान करके उत्क्रमसे पीछे निवर्तता है ।। व्याख्या - पूर्वोक्त प्रकार से केवल ज्ञानी महात्मा अपने असंख्य आत्मप्रदेशोंको चतुर्दश राजलोकमें फैला कर और लोकमें रहे हुए सर्व कर्म परमाणुओंको आत्मप्रदेशों द्वारा स्पर्श करके वेदनीय कर्म के दलियोंको आयु कर्मके समान करता है।
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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