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________________ तेरहवाँ गुणस्थान. (१६१) वेद्यते तीर्थकृत्कर्म, तेन सद्देशनादिभिः । भूतले भव्यजीवानां, प्रतिबोधादि कुर्वता ॥७॥ . श्लोकार्थ-तीर्थकर प्रभु सद्धर्म देशना द्वारा भव्य जीवोंको प्रतिबोध करते हुए तीर्थंकर नाम कर्मको वेदते हैं। ___ व्याख्या-तीर्थकर भगवान भूमंडल पर विचरते हुए तत्वोपदेश देकर भव्य जीवोंको प्रतिबोध करते हैं। कितने एक लघु कर्मी भव्य जीवोंको सर्वविरति और कितने एक भव्य प्राणियोंको देश विरति ग्रहण कराते हुए पूर्वोक्त तीर्थकृत्कर्मको भोगते हैं। केवली भगवानकी उत्कृष्ट स्थिति बताते हैंउत्कर्षतोष्टवर्षोनं, पूर्वकोटि प्रमाणकम् । कालं यावन्महीपीठे, केवली विहरत्यलम् ॥ ८८॥ श्लोकार्थ-उत्कृष्टतासे आठ वर्ष कम यावत्पूर्वकोटी काल प्रमाण केवली भगवान पृथ्वीतल पर विचरते हैं। ___ व्याख्या-केवल ज्ञानी महात्मा केवल ज्ञानावस्थामें आठ वर्ष कम पूर्व करोड़ वर्ष पर्यन्त उत्कृष्ट स्थिति से पृथिवी तल पर विचरते हैं। यहाँ पर यह सामान्य केवली महात्माकी उत्कृष्ट स्थिति बताई है, क्योंकि तीर्थकर भगवान तो. सदैव मनुष्यकी मध्यम आयुवाले होते हैं और अनेकानेक देव देवेन्द्रोंसे संसेवित तथा आठ प्रातिहार्योंकी विभूतिसे विभूषित होकर सदा काल देवकृत सुवर्णके कमलों पर पैर रख कर विचरते हैं। अब केवली समुद्घातका स्वरूप लिखते हैंचेदायुषः स्थितियूंना, सकाशादेद्यकर्मणः । तदा तत्तुल्यतां कत्तुं समुद्घातं करोत्यसौ ।।८९॥ ૨૧
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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