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________________ ( १५४) गुणस्थानक्रमारोह. श्लोकार्थ-एवं पूर्वोक्त प्रकारसे त्रेसठ प्रकृतियोंकी स्थिति क्षीणमोह तक अन्त हो गई, अब प्राय जीर्ण वस्त्रके समान पचासी प्रकृतियाँ सयोगि केवलि गुणस्थानमें शेष रहती हैं। ... व्याख्या-चौथे गुणस्थानसे लेकर जिन त्रेसठ कर्म प्रकतियोंको क्षपक महात्मा उत्तरोत्तर क्षय करता हुआ ऊपरके गुण स्थानोंमें चढ़ता था, उन कर्म प्रकृतियोंको बारहवें क्षीणमोह नामा गुणस्थानमें आकर सर्वथा नष्ट करता है । एवं त्रेसठ कर्म प्रकृतियोंकी सत्ता बारहवें क्षीणमोह नामा गुणस्थानमें नष्ट होती है । जिस प्रकार बलते हुए अग्निमें इन्धन डालना बन्द किया जाय और पूर्वके डाले हुए इन्धनके भस्मावशेष होने पर वह अग्नि स्वयमेव ही शान्त हो जाता है, वैसे ही विषयोंसे निरूद्ध किया हुआ मन भी शान्त हो जाता है । फिर मनके शान्त होने पर शुक्ल ध्यानरूप अग्निके अत्यन्त प्रज्वलित होनेसे योगीन्द्र महात्मा अपने घाति काँको क्षणवारमै नष्ट करता है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, इन चार घाति काँको क्षय करके योगी महात्मा बारहवें गुणस्थानके अन्तमें अनन्त केवल ज्ञान और केवल दर्शनको प्राप्त करता है । ॥बारहवाँ गुणस्थान समाप्त ।। सयोगि केवलि गुणस्थानमें जैसे सम्यक्त्वादि भाव होते हैं उनका स्वरूप बताते हैंभावोऽत्र क्षायिकः शुद्धः, सम्यक्त्वं क्षायिकं परम् । क्षायिकं हि यथाख्यात-चारित्रं तस्यनिश्चितम् ।।३।। ___ श्लोकार्थ-इस गुणस्थानमें योगीको क्षायिक शुद्ध भाव, क्षायिक शुद्ध सम्यत्तव और क्षायिक ही यथाख्यात चारित्र होता है।
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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