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________________ वारहवाँ गुणस्थान. (१५१) लिए आधुनिक समयमें प्रस्तुत शुक्ल ध्यानका अभाव होनेके कारण तदनुभवी योगीका भी अभाव है। अतः केवल शास्त्राम्नायसे ही इस ध्यानकी सिद्धि समझना। ___अब सवितर्कत्व बताते हैंनिजशुद्धात्मनिष्ठं हि, भावश्रुतावलम्बनात् । चिन्तनं क्रियते यत्र, सवितकं तदुच्यते ॥७८॥ श्लोकार्थ-भाव श्रुतके आलंबनसे स्वकीय शुद्धात्मनिष्ठ जो चिन्तवन किया जाता है उसे सवितर्क ध्यान कहते हैं । व्याख्या-जिस ध्यानमें अन्तःकरणमें सूक्ष्म जल्प रूप भाव आगम श्रुतके अवलबंन मात्रसे स्वकीय अति विशुद्धात्मामें विलीन होकर मूक्ष्म विचारणात्मक जो आत्म स्वरूपका चिन्तवन किया जाता है, उसे ही शास्त्रकार सवितर्क गुण युक्त दूसरा शुक्ल ध्यान कहते हैं। - पूर्वोक्त शुक्ल ध्यानसे योगीको जो प्राप्त होता है सो बताते हैंइत्येकत्वमविचारं, सवितर्कमुदाहृतम् । तस्मिन् समरसीभावं, धत्ते स्वात्मानुभूतितः ॥७९॥ श्लोकार्थ-इस प्रकार एकत्व, अविचार और सवितर्क ध्यान कथन किया है, इस ध्यानमें ध्याता निजात्म अनुभूतिसे समरस भावको धारण करता है। ___ व्याख्या-पूर्वोक्त प्रकारसे एकत्व, अविचार तथा सवितर्क, इन तीनों विशेषणों सहित जो शुक्ल ध्यानका दूसरा पाया कथन किया है, इस शुक्ल ध्यानमें स्थिर रहा हुआ योगी महात्मा निरन्तर आत्म स्वरूपका चिन्तवन करनेके कारण अपने आत्मानु
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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